Wednesday, November 09, 2005

क्यों गीत नहीं लिखती हूँ मैं अब

बेचैन हमेशा मन रहता था
"सँभल-सँभल" यह दिल कहता था
पागलपन कहाँ जाता मेरा
गीत वही बनकर बहता था।

पास ज़रा और फिर तुम आए
पहले तो हम थे घबराए
जाने क्या हो जाएगा जो
बाँहों का घेरा कस जाए।

डर ने कविताओं पर मेरी
छुअन अजब कसक की फेरी
और कहाँ जाता फिर वो भी
बन कर गीत तान एक छेड़ी।

पर जब उन बाँहों में घिर कर
सुकूँ कहीं छाया इस दिल पर
जब बातें सब जो थीं मेरी
बोझ दिया उनका तुम पर धर,

गीतों में क्या कहना था अब
जो अस्फुट बातें निकलीं तब
गीत वही बनती थीं पहले
गीत नहीं लिखती हूँ मैं अब।

गीत शायद फिर निकलेंगे
कदम एक और जब हम लेंगे
जब फिर से बेचैनी होगी
कुछ हम जब फिर कह न सकेंगे।

Wednesday, October 26, 2005

पुराना दर्द

दर्द वही है इतने दिन से
गीत बन बहता भी नहीं अब
चुक गए नग़मे, ख़तम हैं किस्से
बातों में रहता भी नहीं अब।

पहली बार जब गीत बना था
लोगों के मन को भाया था।
संग में तड़पा किसी और को
ख़ुद पर ही वह इतराया था।

बासी हो गए गीत सभी वो
ऊब चुके हैं सब जन सुनकर
तड़प भले अब भी उतनी हो
ताजी नहीं रही वो मन पर।

गर्व दर्द सहने का शायद
थक चुका है ऊँचा रहकर।
कड़वाहट ही एक बची है
रह जाती जो हाथें मलकर।

दबा-छिपा कर हँसी-हँसी मे
कोशिश ये हम भी करते हैं
नहीं सुनाए किस्से इसके
बढ़ जाने का दम भरते हैं।

टीस कहाँ लेकिन कम होती
कब रुकता है जलना दिल का?
कहाँ खतम होते हैं आँसू
चैन कहाँ है मन को पड़ता?

Monday, October 10, 2005

मैं एक सपना ही हूँ

क्या हुआ जो मुझको छोड़ सनम
सपनों में खो गए तुम?
मैं भी तो एक सपना ही हूँ।

क्या हुआ जो मुँह को मोड़ सनम
चले कहीं हो गए तुम?
अख़िर मैं एक सपना ही हूँ।

देख नहीं सकते हो मुझको
और भला छू सके कब?
सच में मैं एक सपना ही हूँ।

मूँद के आँखें जो मिलता है
उसमें पाया है जो सब।
वैसे ही मैं सपना ही हूँ।

सपना किसका कब हो पाता
भाग रहे क्यों मेरे पीछे?
मान लो, मैं एक सपना ही हूँ।

Friday, October 07, 2005

क्यों उदास हुए महबूब मेरे?

क्यों उदास हुए महबूब मेरे?

कुछ ठोकरें लगीं, थोड़े घुटने छिले,
माना दुनिया से हैं शिकवे-ग़िले,
पर बदलेगी थोड़ी दुनिया
बदलेंगे थोड़े हम
फिर क्यों भला रहे हमें उदासियाँ घेरे?

क्यों उदास हुए महबूब मेरे?

कुछ तो बचपना था, कुछ समझदारी थी
कुछ तो समझ ख़ुदग़र्ज़ी से हारी थी,
पर भलाई करने की
कोशिश भी तो थी,
फिर क्यों भला रहे हमें उदासियाँ घेरे?

क्यों उदास हुए महबूब मेरे?

Thursday, August 25, 2005

उस दिन समझूँगी प्यार किया

अपने सच के आगे तुम्हारे
सच को अपना लूँगी जिस दिन
उस दिन समझूँगी प्यार किया।

इंतज़ार कर पाऊँ जिस दिन
शिकायत के एक लफ़्ज़ बिन
उस दिन समझूँगी प्यार किया।

छोड़ दूँ तड़पना जिस दिन से मैं
गलतियाँ तुम्हारी गिन-गिन
उस दिन समझूँगी प्यार किया।

Thursday, August 18, 2005

कुछ हर बार बदल जाता है

कुछ हर बार बदल जाता है।

बरसों का है इंतज़ार और
पल भर की ही है बहार
पर उस पल भर में ही कैसे
परदा एक और खुल जाता है।
कुछ हर बार बदल जाता है।

लगता है कि बहुत हुआ
कुछ करने को अब नहीं बचा
पर जब भी मिलते हो फिर से
बंधन एक और खुल जाता है।
कुछ हर बार बदल जाता है।

पहली बार पास आए थे
कैसे हम तब घबराए थे
जब भी अब वापस आते हो
क़दम एक और बढ़ जाता है।
कुछ हर बार बदल जाता है।

Wednesday, August 17, 2005

इतनी खुश थी मैं

कितनी खुश हूँ इसका अहसास ही नहीं हुआ
इतनी खुश थी मैं।
याद दिलाया तुमने पर विश्वास ही नहीं हुआ
इतनी खुश थी मैं।

बच्चों के से खिलवाड़ मुझे आ रहे थे रास
इतनी खुश थी मैं।
बेमतलब की बातें भी लग रहीं थीं ख़ास
इतनी खुश थी मैं।

बंद कमरा भी खुला आसमान बन गया था
इतनी खुश थी मैं।
तुम्हारी आँखों से ही पूरा जहान बन गया था
इतनी खुश थी मैं।

Friday, August 12, 2005

क्यों चुप हूँ मैं

पूछा न करो मुझसे कि क्यों चुप हूँ मैं।

कभी सुना है फूलों को बोलते
देखा है तारों को मुँह खोलते?
रंग और रोशनी जो छाई हुई है
बिना कहे सुने ही कितनी खुश हूँ मैं।

पूछा न करो मुझसे कि क्यों चुप हूँ मैं।

Monday, August 01, 2005

कौन सा है आसमान जिसमें उड़ रही हूँ मैं

कौन सा है आसमान जिसमें उड़ रही हूँ मैं
कौन डगर जिससे कि पीछे ना मुड़ रही हूँ मैं।

गीत बन के बिखरे जो शब्द हैं हवाओं में
लाया मेरे पास कौन कि बन सुर रही हूँ मैं।

प्रिय की बाँहों में कहीं वसंत-सा कुछ है सही
ग्रीष्म की तपिश में बन फूल झड़ रही हूँ में।

सावन ने उनकी आँखों में घर शायद कर लिया
तभी तो यों घनघोर घटाओं-सी उमड़ रही हूँ मैं।

Sunday, July 24, 2005

डर नहीं है बिछड़ने का भी ऐ सनम

डर नहीं है बिछड़ने का भी ऐ सनम,
ले भी गया मुझे कोई तो क्या वो पाएगा?
क्या था मेरे पास जो तुम्हें न दे दिया
हार कर वो खुद ही मुझे लौटा जाएगा।

रहे नहीं वो दिन कि हर एक गुलशन में
फूल दिल का खिलने के क़ाबिल होता हो,
छूट गई दुनिया जहाँ मन का उड़ता पंछी
तेज दौड़ने से कभी हासिल होता हो।

आशियाना मिल गया है, मिल गए दाने
निकला बाहर उनसे तो फिर जी न पाएगा।
आब-ए-जन्नत मिल गई है इस दिल को
और अब वो सादा पानी पी न पाएगा।

Wednesday, July 20, 2005

हाँ, कहा तो था तुमने साथी

हाँ, कहा तो था तुमने साथी।

कि मुश्किल होंगी राहें अपनी
फेरना मत निग़ाहें अपनी।
निग़ाहों को समझा लूँ पर दिल का क्या करूँ,
मारती हैं जिसे सज़ाएँ अपनी।

हाँ, कहा तो था तुमने साथी।

कि मूँदनी पड़ेंगी हमें आँखें अपनी
नहीं समझेंगे वो बातें अपनी।
पर दुनिया भी खींचती है क्या करूँ उसका,
कहाँ भेजूँ परेशान रातें अपनी।

हाँ, कहा तो था तुमने साथी।

कि बिना आस के ही चलना पड़ेगा
बेचैनियों में जीना-मरना पड़ेगा।
पर बर्दाश्त नहीं होती बेचैनी, आस नहीं मरती,
कहो कब तक उन्हें कुचलना पड़ेगा?

हाँ, कहा तो था तुमने साथी।

Sunday, July 17, 2005

चाहा है सबने हमें

चाहा है सबने हमें इससे ज़्यादा तो क्या करे कोई
क़िस्मत में ना हो प्यार का मज़ा तो क्या करे कोई।

यों तो बिठा दिया है आसमाँ पर तुमने हमें
हो खुदा का और ही फ़ैसला तो क्या करे कोई।

शिक़ायत क्या करें जान दे दी लोगों ने हमपर
लेने को मेरे दम ही न हो बचा तो क्या करे कोई।

ज़माने ने तो दे ही दी तलवार हाथ में
बेबस मेरा हाथ ना उठा तो क्या करे कोई।

Friday, July 15, 2005

कल रात क्या ऐसा नहीं लगा

कल रात क्या ऐसा नहीं लगा,
कुछ कहना था और नहीं कहा?

नहीं ऐसा कि डरते थे पर
समाँ ही मानो नहीं बँधा।

समझ गए हम इतना क्या कि
कहने को कुछ नहीं बचा?

किस्से पूरी दुनिया के हैं
दासताँ अपनी गई कहाँ?

कुछ पल जो मेरे अपने हैं
सब चीज़ें उनको लें न चुरा।

कल रात क्या ऐसा नहीं लगा,
कुछ कहना था और नहीं कहा?

Sunday, July 10, 2005

अनजान थे हम पर हमें लोग जानते थे

अनजान थे हम पर हमें लोग जानते थे
नादान थे ना समझे पर लोग जानते थे।

चिंगारियो को भले ही पहचान ना पाए हम
भढ़केंगी ही वे कभी ये लोग जानते थे।

पास आए, दूर हुए, खेल समझा किए इसे
पर मिलना ही था हमें सब लोग जानते थे।

दुनिया को चौंका देंगे ये सोचा था हमने
पर सबकुछ हमसे पहले ही लोग जानते थे।

पूछते हैं लोग कि शुरुआत कहाँ हुई

पूछते हैं लोग कि शुरुआत कहाँ हुई
पहली बार उनसे दिल की बात कहाँ हुई।

किस्से जो लिख रखे लोगों ने सदियों से
वारदात उन सी हमारे साथ कहाँ हुई।

आँखे नहीं मिली, होठ नहीं हिले
किस्सा सुनाएँ तुम्हें ऐसी बात कहाँ हुई।

दुनिया डूब चुकी है, नादानियाँ तो देखो
पूछते हैं लोग कि बरसात कहाँ हुई।

Saturday, July 09, 2005

वो याद में खुश थे मेरी, रोए हम उन्हें याद कर

वो याद में खुश थे मेरी, रोए हम उन्हें याद कर
चुप रह दिल मेरे, हँसते हैं सब फ़रियाद पर।

होंगे और वो लोग जो लेते हैं दर्द में मज़ा
रोना हमें तो आ गया खुशियों की ख़ाक पर।

किया जमा बरसों से इतना कुछ कहने को
और ज़बान खुली नहीं एक भी बात पर।

लफ़्ज़ जमा कर लें हम, समाँ कैसे सँजोए
मिट गई स्याही जिससे नाम लिखा हाथ पर।

उम्र भर वो रोशनी ढूँढा किए मेरे लिए
और हम तो मिट गए थे बस एक रात पर।

Tuesday, July 05, 2005

कहाँ से सीखा है सताना?

कहाँ से सीखा है सताना?

यों तो आँसू पर किसी के
खुद भी रोते से दिखते हो।
दर्द बयाँ कर के दुनिया के
रोज़ नई ग़ज़ल लिखते हो।
कैसे फिर मुझको यों तुम
तड़पाते हो ये बतलाना।

कहाँ से सीखा है सताना?

नींद तुम्हें तो आ जाती है,
रातों में सपनों के साथ।
कहीं भी तो होता नहीं
पास मेरे तुम्हारा हाथ।
क्या टोना करते हो लेकिन
काम जिसका मुझको जगाना?

कहाँ से सीखा है सताना?

भूल गए वो मुझको ही

भूल गए वो मुझको ही, यादों को मेरी साथ लिए
धुंधला हो गया चेहरा मेरा, हाथों में जब हाथ लिए।

कब तक मन बहलाए कोई, चंद पलों की बातों से,
उम्र गुज़र गई ऐ गुलशन, उनसे खुलकर बात किए।

समय नहीं गुजरेगा मानों, झरने सब थम जाएँगे,
मौत नहीं आएगी उन बिन, ज़हर कोई क्या ख़ाक पिए।

इजाज़त दी थी क्यों ऐ दिल, आरजुओं को आने की,
नहीं छोड़ती अब वो दामन, कोशिश मेरे लाख किए।

Saturday, July 02, 2005

सब लोग कहते हैं

मुझे कहीं कुछ हो तो गया है, सब लोग कहते हैं।
क़ाबू ख़ुद पे खो तो गया है, सब लोग कहते हैं।

छिपाया तो बहुत हमने पर छिप न सका दुनिया से
कोई कल रात रो तो गया है, सब लोग कहते हैं।

कोई क़त्ल तो हुआ है, रात छींटे खून के यहाँ से
रगड़ कर कोई धो तो गया है, सब लोग कहते हैं।

फूलों की किसे तलाश, काँटों की सेज बिछा कोई
उस पर सर रख सो तो गया है, सब लोग कहते हैं।

Wednesday, June 29, 2005

हवा चल तो रही है

हवा चल तो रही है क्यों मेरे पास आती नहीं
हज़ार चीज़े तो हैं क्यों उनकी याद जाती नहीं।

आयी बारिश दुनिया ने की ख़ुशामदीद
गम मेरा ये क्या ये उन्हें तड़पाती नहीं।

कभी मैंने ही सजाई थी अपने हाथों से जो
क्या हुआ कि वो महफ़िल मुझे भाती नहीं?

कितनों की लगी है क़तार बता दे ऐ ख़ुदा,
दरबार में तेरे क्यों मेरी बारी आती नहीं।

Tuesday, June 28, 2005

सुहाना मौसम आ गया तुम आ सकते नहीं

सुहाना मौसम आ गया तुम आ सकते नहीं
और तुम बिन ये नज़ारे हमें भा सकते नहीं।

परिंदे भी बहलाते नहीं हमें, कहते हैं ये -
ये रोती शकल देख हम गा सकते नहीं।

साथियों ने तौबा कर ली साथ मेरे आने से -
रहती हो जाने कहाँ हम साथ आ सकते नहीं।

छोड़ दिया मेरे हाथों ने मेरा साथ, कहा -
छूना है आसमान, वहाँ हम जा सकते नहीं।

ख़्वाबों को मेरे पड़ी नसीहतों की मार -
छोड़ दे, उन्हे तेरे नसीब पा सकते नहीं।

Monday, June 27, 2005

मुझे चाँद ना कहा करो

मुझे चाँद ना कहा करो महबूब मेरे।

क़िस्मत में लिखा है उसकी
बस अकेले यों ही रहना।
तारे तमाशा देखते दूर से, उसे
दर्द अपना खुद ही है सहना।
क्या करे अगर कभी उदासियाँ उसे घेरें?
मुझे चाँद ना कहा करो महबूब मेरे।

उसकी चाँदनी में यों तो
ठंढक दुनिया सारी पाती है।
पर उसकी ठंढी आहें कहाँ
किसी के दिल को तड़पाती हैं?
ले कहाँ पाया कभी वो प्रियतम के संग फेरे।
मुझे चाँद ना कहा करो महबूब मेरे।

Thursday, June 23, 2005

हम दो साथी आशा से हीन

हम दो साथी आशा से हीन।

मंज़िल अपनी हो सकती नहीं
फिर भी चाहत है बढ़ने की।
मंज़िल ही तो छिन सकती है
रास्ता कौन लेगा छीन?

हम दो साथी आशा से हीन।

इज़ाज़त नहीं है रुकने की,
बाँहों में तुमको भरने की।
बस हाथ पकड़ चलते हैं
जब तक साँसें न हो जाएँ क्षीण।

हम दो साथी आशा से हीन।

Wednesday, June 15, 2005

सच ही कहा था उन्होंने

सच ही कहा था उन्होंने

आसान नहीं होतीं
मोहब्बत की ये राहें।
पागलपन नहीं रुकता
लाख किसी के चाहे।

सम्भाले नहीं सम्भलता
बेचैन होता मन।
दिमाग़ की नहीं सुनती
तेज़ होती धड़कन।

समय के साथ नहीं भरता
घाव कभी दिल का।
उलटा हर पल इसे
दर्द नया है मिलता।

बेचैनियाँ भी दिल कीं
एक हद के बाद।
लफ़्ज़ों में हो ना पातीं
ज़ाहिर हैं साफ़-साफ़।

आँखें ही नहीं खुलतीं
हों सामने वो ना ग़र।
पर नींद नहीं आती
भूले-से भी पलकों पर।

फिर भी रोककर के
अपने पागलपन को,
रौंद कर चिल्लाती
हुई एक धड़कन को,

दबाकर सिसकियों को
बेचैनियों को मार,
सोख आँसुओं को
कर के दिलपर वार,

खोलनी पड़ती हैं
सुरज के संग आँखें,
चलना पड़ता है दिनभर
ज़िम्मेदारियों को लादे।

सुन ना पाए कोई
भूल से भी आहें।
आसान नहीं होतीं
मोहब्बत की ये राहें।

सच ही कहा था उन्होंने।

Wednesday, May 11, 2005

रूठा ना करो

रूठा ना करो इन सवालों पर,
पागल दिल के बेचैन ख़यालों पर।

जो एक बार तुमसे पूछा,
सौ बार पहले ख़ुद से पूछा।
तुमसे पूछ कर मैंनें
बस मरहम तुम्हारे साथ का
लगाया दिल के छालों पर।
रूठा ना करो इन सवालों पर।

Sunday, May 01, 2005

समर्पण

लिख पाती ऐसा गीत कोई
सब मन की बातें कह जाता।
और फिर उनसे कहने को
और नहीं कुछ रह जाता।

शब्द कुछ ऐसे होते
दिल निकाल कर रख सकते।
एक निग़ाह ऐसी जिसमें
सारा जी हम भर सकते।

होता आलिंगन कोई ऐसा,
आग सारी बुझ जाती।
कोई चुम्बन होता जिसमें
सारी साँसें चुक जाती।

ऐसा कोई मिलन भी होता,
पल भर में जो हो जाता,
और तड़प, इच्छाएँ बाकी
के जीवन की धो जाता।

कुछ होता मिल जाता उनको
मेरे मन का पूरा दर्पण।
संस्कार कोई ऐसा कि
हो जाता सम्पूर्ण समर्पण।

Thursday, April 28, 2005

ईर्ष्या

"ईर्ष्या नही होती क्या मुझे?"
यही पूछा था ना तुमने ?

होती है मुझे ईर्ष्या !!

उन हवाओं से,
जो तुम्हारे बाल सहलाती हैं,
उन खुशबुओं से,
जो तुम्हारे करीब आती हैं ।

उन पत्तों से,
जो डाली से टूट कर तुम्हारे कंधों का सहारा ले सकते हैं,
उन दृश्यों से,
जो तुम्हारी जलती आंखों को कुछ सुकून दे सकते हैं ।

उस पानी से,
जो तुम्हे भिगो कर दिन भर की थकान उतार पाता है,
उस पक्षी से,
जो तुम्हारी मुंडेर पर बैठ, दो पल ही सही, एक गीत गा जाता है।

क्योंकि इनमे से हर काम मे मेरा हिस्सा हो सकता है !
और इनके आगे इंसानों से कौन भला कभी जलता है?

Friday, April 22, 2005

जो ऐसा हो तो

कभी जब पास हो कर भी दूरियां मुझसे लगें बडने,
मेरा साथ प्यास बुझाने की बजाये खुद ही लगे जलने ,
तब याद कर लेना आज की दूरियों का बेपनाह दर्द ।
शायद तब साथ मेरा फ़िर से भाने लगे,
और नज़दीक हम दोनों फ़िर से आने लगें ।

कभी अपनी ज़िंदगी में जब ऊब सी आने लगे,
जब रोज़ की जाने वाली बातें उकताने लगें,
तब एक बार पलट लेना आज के सपनों की किताब ।
शायद इन मे से कुछ करने को हम फ़िर ललचाने लगें,
और ये उत्सुकता फ़िर से जीवन में आने लगे ।

काल यदि तुमसे हमको कभी यों ही ले जायें छीन,
और सुषमा जीवन की सारी लगने लगे मानो हीन,
दूरियों मे पनपे प्यार की याद तब तुम कर लेना ।
शायद निराशा का भाव तब मन से तुम्हारे जाने लगे,
और क्षीण शरीर भी जोर से जवां दिलों का गीत गाने लगे ।

Sunday, April 17, 2005

यूं दूरियां मिटती जाती हैं

यूं दूरियां मिटती जाती हैं ।

डर था आंख मिलाने मे भी,
हिचक हाथ बडाने मे भी ।
कब मिली नज़र, कब थमा हाथ,
बात याद नही अब आती है ।

यूं दूरियां मिटती जाती हैं ।

कब कंधे पर रक्खा सर,
और आंखों मे कई सपने भर,
जिन बांहों ने कसा मुझे,
कितनी वो अभी भाती हैं।

यूं दूरियां मिटती जाती हैं ।

आम सी बात कहने मे भी,
हिचक भला कैसी थी होती?
कैसे दिल के दर्द, भय और
खुशियां भी यूं खुल जाती हैं?

यूं दूरियां मिटती जाती हैं ।

पास रह भी दूर थे वो
ख्वाब वो मजबूर थे जो !
दूरियों से भी अब कैसे,
तान उनकी आ जाती है?

यूं दूरियां मिटती जाती हैं ।

Wednesday, April 13, 2005

ना तेरा है ना मेरा है

ना तेरा है ना मेरा है, अब दर्द हमारा है साथी ।

सपने इस दिल के हरदम,
छोटे छोटे से होते थे ।
कुछ पाने की इच्छा से पहले,
डरती थी उसके खोने से ।

तुम मिले तो मेरे सपनों को,
बौनापन पता चला अपना ।
और संग तुम्हारे मिल कर मैंने,
देखा एक बडा सपना ।

ये वो ही है जिसे अभी तुम,
अपना सपना कहते हो ।
अब सिर्फ़ तुम्हारा रहा नही,
वो मर्ज हमारा है साथी ।

ना तेरा है ना मेरा है, अब दर्द हमारा है साथी ।

जो तान अभी छेडी तुमने,
प्रेरणा मेरी भी तो थी ।
गीत जो लिखे कभी मैंने,
समझा तो उनको तुमने भी ।

बसंत जो आया है इस बार,
लाये हम तुम मिल कर ही ।
वरना सुख कौन सा पाते थे,
फूल सारे खिल कर भी ।

अकेले मे चाहे तुम गाओ,
तन्हा ही मैं गुनगुनाऊं ।
रहा कहां अब तेरा मेरा,
तर्ज हमारा है साथी ।

ना तेरा है ना मेरा है, अब दर्द हमारा है साथी ।

Saturday, April 02, 2005

अंत या शुरुआत?

अंत है या शुरुआत सफ़र की?
आज तो ये बात नहीं जान पड़ती।

हलचल-सी तो है कहीं पर
जाने ये तूफ़ान बनेगा?
या बस यहीं खतम हो कर
कुचला हुआ अरमान बनेगा?

रहूँगी कल मैं जीती या मरती?

अंत है या शुरुआत सफ़र की?
आज तो ये बात नहीं जान पड़ती।

जिन्होंने साथ दिया अब तक
क्या रोड़े बनेंगे राह में?
और उन्हें पूजने का कर्तव्य
मुझे बढ़ने न देगा अपनी चाह में?

सब ठीक है या होगी कोई बात डर की?

अंत है या शुरुआत सफ़र की?
आज तो ये बात नहीं जान पड़ती।

और अगर सच में कहीं ये
साबित हुआ अंत सफ़र का,
क्या करेंगे, कहाँ जाएँगे हम -
रास्ता देखेंगे भी तो किस दर का?

क्या कुचली जाएगी उड़ान पर की?

अंत है या शुरुआत सफ़र की?
आज तो ये बात नहीं जान पड़ती।

Thursday, March 31, 2005

क्या कभी बताया मैंने?

शिक़ायतें तो कीं
पर क्या कभी बताया मैंने,
कितनी छोटी-बड़ी बातों से तुम्हारी
पहने मैंने खुशियों के गहने?

क्या कभी तुम्हें पता चला,
कंधे पर तुम्हारे पल भर सर रखकर
कैसा अनोखा सुकून मुझे मिला?

क्या दिखाई मैंने चमक इन आँखों की
जो आई थी उस पल, जब हुआ महसूस
कि तुम करते हो परवाह मेरी बातों की?

क्या कभी दिखा पाई दिल का वो कोना
जो तुम्हारी एक नज़र मुझपर पड़ते ही
भूल जाता है खाना और सोना?

क्या उन दुआओं का असर तुमपर पड़ता है,
जो तब निकलती हैं जब मेरा दिल
तुम्हारे मुश्किल सब्र की पूजा करता है?

क्या कभी मैंने कहा तुमसे
कि मेरा चेहरा क़ाबिल नहीं इतना
कि दिखा सके सारे भाव मन के,

जो तुम्हारी वजह से आते हैं,
और सिर से लेकर पैर तक मुझे
खुशियों से सराबोर कर जाते हैं?

क्या कभी बताया मैंने?

Tuesday, March 29, 2005

इतनी देर लगाते हो

इतनी देर लगाते हो
कि आँसू तक सूख जाते हैं।

सुबह शाम में, शाम रात में
बदल जाती है और
आसमान पर तारे छा जाते हैं।
दिन भर चहकती चिड़िया
सो जाती है और
बिछड़े दीवाने कुछ गाते हैं।
आने ना आने की तुम्हारी
गिनती सी गिनते
जाने कब हम भी सो जाते हैं।

इतनी देर लगाते हो
कि आँसू तक सूख जाते हैं।

कुछ देर तक तो हमें भी
इंतज़ार के ये पल
बहुत ही भाते हैं।
आओगे तो क्या नखरे करेंगे
मन-ही-मन में
हम वो दोहराते हैं।
पर बीतते समय के साथ
सिर्फ़ बेचारगी बचती है।
जब आख़िर में आते हो,
नाज़-नख़रे धरे ही रह जाते हैं।

इतनी देर लगाते हो
कि आँसू तक सूख जाते हैं।

Monday, March 28, 2005

बस यों ही

क्या सुनाऊँ दास्तान अपनी
अब शब्द भी नहीं मिलते।

किसे देखा, क्या सोचा
अब होठ ही नहीं हिलते।

किसने कहा रेगिस्तान में
कभी फूल नहीं खिलते?

हमने देखा है क्षितिज तक जा
धरती को आसमान से मिलते।

देखने भर से पर मिलती नहीं सिफ़त
कि जो देखा हो, वो बयाँ भी करते।

फूल से हलकी, जान से भारी
रखी एक चीज़ है, बस यों ही दिल पे।

Saturday, March 26, 2005

मन

मन को तो रंग ना पाओगे
तन रंग दो चाहे कितनी बार,
ऊपर ही ये रह जाएँगे
मेरे, रंग हरे और लाल।

मन कहीं और जा बैठा है,
पर उनके हाथों में गुलाल नहीं।
इन हाथों ने रँगा जिनको भी,
हटा कभी ये ख़्याल नहीं।

बेचैन ये मन जो बैठा है,
रँगने को होकर तैयार।
दौड़ा ही चला वो जाएगा,
वो आवाज़ तो दें बस एक बार।

Thursday, March 24, 2005

सब कुछ पाने की कोशिश में

सब कुछ पाने की कोशिश में
सब कुछ छिन तो ना जाएगा?

दुनिया भी देखनी है
और तुम्हें भी पाना है।
तुम्हें साथ लिए हुए
क्षितिज के पार जाना है।
सब एक साथ ही मिल जाए
क्या वो दिन भी आएगा?

सब कुछ पाने की कोशिश में
सब कुछ छिन तो ना जाएगा?

धरती का धैर्य चाहिए
स्वच्छंदता भी आकाश की।
महलों की रौशनी भी
परीक्षा भी वनवास की।
कैसे कोई सब रागों को
एक साथ ही गाएगा?

सब कुछ पाने की कोशिश में
सब कुछ छिन तो ना जाएगा?

जो नहीं है वह पाना है
जो है वह भी न छूटे।
बँधे नए बंधन प्राणों के
पर जो हैं वो ना टूटें।
क्या आसमान और ज़मीन को
कोई एक कर पाएगा?

सब कुछ पाने की कोशिश में
सब कुछ छिन तो ना जाएगा?

Monday, March 21, 2005

अभी नहीं

ऐ हवा! अभी दूर ही रहना
अभी उन्होंने छुआ है मुझको।
वो अहसास अगर भूल पाऊँ तो
तेरा भी हक़ दूँगी तुझको।

पत्तों अभी आवाज़ न करना
कानों में भरे हैं लफ़्ज़ उनके।
गूँज बंद वो हो पाए तो
गीत भी सुन लूँगी मैं तुमसे।

बारिश ना बाल मेरे भिगोना
छिपी है उँगलियों की उनकी
हलकी-सी छुअन जो इनमें
होंगी वही साथी विरहन की।

दोस्तों चेहरा उदास ज़रूर है,
पर तसल्ली देने अभी ना आना।
जो पल बिखरे हैं मेरे अभी
सहेजे बिना कब दिल है माना?

Saturday, March 19, 2005

इंतज़ार में

जो तुम्हारा सफ़र होता है
वो मेरे तीन दिन होते है।
आपका एक पहर होता है
घंटे हम गिन-गिन रोते हैं।

एक घंटे में आई-गई
बात हमें तड़पाती है,
पूरे साठ मिनटों की वो
कसक लिए हुए आती है।

एक मिनट के साठ पल
पलो के भी हज़ार टुकड़े
बीतते हैं ज्यों-ज्यों वे, मेरा
जाते हैं करार लूट के।

इंतज़ार में!

प्यास

जीवन भर की प्यास के बाद
मिला हो यदि गंगाजल और
अनुपम हो पर दो बूँदों से
ज़्यादा का न चलता हो दौर।

सौभाग्य है उसको पाना या
अच्छा था ना वो मिलना ही?
प्यासी ही मैं मर जाती, क्यों
जीने में तिल-तिल मरना भी?

Wednesday, March 16, 2005

शांति!

हलचल बंद-सी है
अभी मेरे दिल में।
शांति तो नहीं ये
तूफ़ान से पहले की?

धुंधले हैं सपने
खोए मेरे शब्द।
कुछ ज़्यादा बातें तो नहीं
हैं उनसे कहने की?

ये रोज़ की दूरियाँ
और दूरियों की आदत।
होगी भी कभी क़िस्मत
एक साथ रहने की?

उड़ने की इच्छा
पर कुतरे हुए पर।
छूट मिलेगी क्या
दरिया-संग बहने की?

ऐ दिल, मत धड़कना,
आ भी जाएँ वो तो।
स्वागत करना, शांति का
आवरण पहने ही।

Sunday, March 13, 2005

बदलाव

दुनिया तो नहीं बदली अभी
ये नग़मे नहीं हो सकते नए।
बिखरे तो होंगे ये पहले भी
फ़िज़ाओं में, मैंने ही नहीं सुने।

जाने कैसे ना दिखे मुझे
ये फूल रंग हज़ार लिए?
कैसे आँखों को दे गई धोखा
ये ज़मीं सोलह श्रृंगार किए?

क्यों कभी ये हवाएँ सर्द
मन में तरंगें उठा न सकीं?
कैसे कभी चाँदनी सपनों से
बोझिल पलकें झुका ना सकीं?

क्यों कभी भींगी दूब पर चलते
क़दम मेरे लड़खड़ाए नहीं?
क्यों कभी मुझे गुदगुदाने वाले
सपने पास आए नहीं?

कैसे कभी मन नहीं मचला,
किसी को पास बुलाने को?
कहाँ कभी मुश्किलें झेलनी
पड़ीं ख़ुद को सुलाने को?

कहाँ कभी मन में ये आया
दम भर भीगूँ बारिश में?
क्यों न कभी मैं मचली
उस आसमान की ख़्वाहिश में?

लम्हे ना कभी भारी पड़े,
गला कभी ना भर आया।
कहाँ कभी कोई बोझ मेरे
छोटे से दिलपर आया?

कभी बिना रुके तो ऐसे
कलम भी मेरी चली नहीं
गीत एक इंसान की ख़ातिर
लिखने को मचली नहीं।

तारीफ़ कहाँ कभी किसी की
चमक मेरी आँखों में लाई?
कहाँ किसी की पुकार कभी
चहक मेरी बातों में लाई?

क्यों ना इन 'बेवक़ूफ़ी' भरी
बातों में मतलब दिखा?
क्यों ना कभी यादों की कलम से
दिल पर किसी का नाम लिखा?

बंधन की आज़ादी को कभी
क्यों ना मैंने पहचाना?
जो शीशे सा साफ़ है
वो राज़ ना मैंने क्यों जाना?

सच ही कहा जिसने भी कहा,
क़िस्मत से ज़्यादा, समय से पहले,
मिलता नहीं किसी को कुछ है,
कुछ भी कह दे, कुछ भी कर ले।

वरना आँखों के आगे पड़े
सपने को क्यों ना पहचाना?
दिल में ही जो गीत छिपा था
क्यों न उसे अपना माना?

Friday, March 11, 2005

दो शब्द तुम्हारे लिए

क्यों चैन नहीं आता मुझे
कुछ भी मेरे किए,
लिख ना छोड़ूँ जबतक
दो शब्द तुम्हारे लिए।

जब दुनिया हाथों से फिसल सी जाती है,
सब कुछ अचानक दूर हो जाता है।
तब किसका अहसास मुझे घेरता है,
कौन कानों में अनसुना गीत गुनगुनाता है?
मदहोशी का जाम-सा पिए,
तब लिखती हूँ मैं,
दो शब्द तुम्हारे लिए।

जब नींद नहीं आती है मुझको
पर सपनों से भारी हो पलकें
खुलने को तैयार न हों और
वे सपने चेहरे पर झलकें।
उनका बोझ उतारने के लिए
तब लिखती हूँ मैं
दो शब्द तुम्हारे लिए।

सोचती हूँ ये भी कभी-कभी,
क्या है इनमें? कुछ भी नहीं,
कितनों ने ही सुना-देखा ये
बात बिलकुल भी नई नहीं।
फिर भी अपने आप के लिए
लिख ही जाती हूँ मैं
दो शब्द तुम्हारे लिए।

Thursday, March 10, 2005

यों दुनिया को भूलकर कब तक चलेंगे भला?

यों दुनिया को भूलकर कब तक चलेंगे भला?

ख़ामोश सपनों से, बेबस आहों से,
बेसब्र दिल से, पर मजबूर निग़ाहों से,
किसे कहो कभी कुछ है मिला?

यों दुनिया को भूलकर कब तक चलेंगे भला?

सफ़र ऐसा जिसकी कोई भी मंज़िल नहीं,
जो दिमाग़ कहता है जब मानता वो दिल नहीं,
कशमकश में ऐसी देर तक किसका जीवन चला?

यों दुनिया को भूलकर कब तक चलेंगे भला?

कभी सोचा है क्या होगा ग़र हम नहीं होंगे कल,
जो गीत लिखे मेरे लिए, उनसे किसी और को पाओगे छल?
पर अकेले भी कभी किसी से, जीवन का बोझ है टला?

यों दुनिया को भूलकर कब तक चलेंगे भला?

Wednesday, March 09, 2005

कभी बताना मुझे

कभी बताना मुझे ।

कैसा लगा था जब
बात ये दिल में आई थी
कि शायद चाहते हो मुझे
और पहली बार मैं भाई थी।

कभी बताना मुझे ।

कि कितने खुश हुए थे
जब मैं भी मुसकाई थी।
तुम्हारी धड़कनों की धुन
मेरे दिल ने भी गाई थी।

कभी बताना मुझे ।

कि वो कैसी मुस्कान थी
जो तुम्हारे चेहरे पर आई थी,
जब दरवाज़े की घंटी मेरा
छोटा सा तोहफ़ा लाई थी।

कभी बताना मुझे ।

कि क्या कभी यों ही
अचानक तुम तड़पे थे,
बेचैनी-सी छाई थी और
दिल के अरमाँ भड़के थे।

कभी बताना मुझे ।

कि कैसा लगा था लिखना
वो पहला ख़त मुझको।
जब लगा कि उड़कर पहुँच जाए
वो मुझतक, कैसे सँभाला ख़ुद को।

कभी बताना मुझे ।

कि क्या अब भी तुम
सपने वैसे बुनते हो।
और कभी टूटने से भी
क्या उनके तुम डरते हो?

कभी बताना मुझे ।

Thursday, March 03, 2005

कब लिखोगे?

कब लिखोगे?

सुबह यही आया पहला ख़याल,
कैसे बताऊँ फिर क्या हुआ हाल!
कुछ और नहीं थी कर सकती
ख़ुद से ही मैं रही पूछती,

कब लिखोगे?

दिन चढ़ा, कई काम थे ज़रूरी
इस ख़याल से चाही थोड़ी दूरी
सब ठीक था, सब निबट गया,
पर दिल का एक कोना सोचता रहा,

कब लिखोगे?

धुंधलका छाया, शाम गहराई,
डूबते सूरज ने आवाज़ लगाई।
दम भर देख ले नज़ारे फिर मैं चला
सोचा जब दिन ग़ुज़रने का पता चला,

कब लिखोगे?

Wednesday, March 02, 2005

जब हम नहीं होते हैं

जब हम नहीं होते हैं।

इन सपनों से आप खेलते हैं क्या?
छिपा दर्द दिल का झेलते हैं क्या?
कभी बेचैनी में अपने
होश तो नहीं खोते हैं?

जब हम नहीं होते हैं।

दूरियाँ कहीं ये सारी आपको खलती तो नहीं?
मेरी अनकही आह कानों पर पड़ती तो नहीं?
गाते-गाते कभी छिपकर, दिल के
तार तो नहीं रोते हैं?

जब हम नहीं होते हैं।

दिन की चहल-पहल से दूर,
दिल के हाथों हो मजबूर
आँखों में हसरतों के सपने
भरे तो नहीं सोते हैं?

जब हम नहीं होते हैं।

Tuesday, March 01, 2005

इंतज़ार ही मेरी क़िस्मत है

इंतज़ार ही मेरी क़िस्मत है ।

जो इर्द-ग़िर्द है मंडराती,
पर पास नहीं फिर भी आती,
वो बहार ही मेरी हिम्मत है ।

इंतज़ार ही मेरी क़िस्मत है ।

जितनी राह हूँ देख चुकी,
उतनी ही देर है और सखी ।
ये मज़ार ही मेरी जन्नत है ।

इंतज़ार ही मेरी क़िस्मत है ।

पल भर छूकर निकल जाना,
पाने की कोशिश छल जाना,
ऐ बयार, ये तेरी फ़ितरत है ।

इंतज़ार ही मेरी क़िस्मत है ।

Monday, February 28, 2005

वो गीत कभी मैं लिख पाऊँ

वो गीत कभी मैं लिख पाऊँ
जो उनके दिल को छू जाए।

सुनकर मेरे मन की तान,
मानो चमका हो आसमान,
वो चाँद गगन में यूँ छाए।

वो गीत कभी मैं लिख पाऊँ
जो उनके दिल को छू जाए।

जो सोच सिहर उठती हूँ मैं,
और चार प्रहर जगती हूँ मैं,
वो बात ना उनको क्यूँ भाए?

वो गीत कभी मैं लिख पाऊँ
जो उनके दिल को छू जाए।

बेचैन बना दे यों उनको,
चैन ना हो फिर तन-मन को
और देखें तारे मुँह बाए।

वो गीत कभी मैं लिख पाऊँ
जो उनके दिल को छू जाए।

Friday, February 25, 2005

आया जो पहला ख़त उनका

आया जो पहला ख़त उनका।

ज़मीं से उठाकर मुझे
आसमां पर बिठा गया।
थोड़ा जो बचा था मेरे पास
वो चैन भी चुरा गया।
ये बात उन्हें बता देना
पर चैन चुराना यों मत उनका
आया जो पहला ख़त उनका।

भीड़ में बैठे ही बैठे
जो कहीं खो गई मैं।
बिना किसी वज़ह के
पागल सी जो हो गई मैं।
तो अजूबा क्या था इसमें
दोष इसे कहना मत मन का।
आया जो पहला ख़त उनका।

Saturday, February 19, 2005

क्या सज़ा दूँ

क्या सज़ा दूँ जो तुम्हारी हो,
पर वो नहीं मेरी हो?

कैसे समझाऊँ तुम्हें
दर्द इंतज़ार का?
क्यों लेते हो इम्तिहान
यों मेरे प्यार का?
क्या करूँ कि फिर से
कभी ना ये देरी हो?

क्या सज़ा दूँ जो तुम्हारी हो,
पर वो नहीं मेरी हो?

ख़ुद को खो चुकी मैं
जाने कब तुम्हारे आगे।
अब मेरे वश में नहीं ग़र
रातों में आँखें मेरी जागें।
क्या करूँ कि एक बार
फिर नींद मेरी चेरी हो?

क्या सज़ा दूँ जो तुम्हारी हो,
पर वो नहीं मेरी हो?

Friday, February 11, 2005

क्यों भला सहती हूँ मैं

इतना सताते हो
और क्यों भला सहती हूँ मैं?

तरसा देते हो रोज़ दो शब्दों के लिए,
इतना नहीं तड़पी मैं कभी किसी के कुछ किए।
फिर भी आस दिलाते हो
तो क्यों बैठी रहती हूँ मैं?

इतना सताते हो
और क्यों भला सहती हूँ मैं?

नींदें उड़ाकर चैन से सो जाते हो,
एक झलक दिखाकर कहीं खो जाते हो।
फिर भी जब सपने दिखाते हो
तो क्यों उनमें बहती हूँ मैं?

इतना सताते हो
और क्यों भला सहती हूँ मैं?

परेशान करते हो, हँस के जी जलाते हो,
और बताओ भला फिर भी क्यों भाते हो?
शिक़ायतें कभी ख़ुद भी सुझाते हो
तो भी कहाँ कहती हूँ मैं?

इतना सताते हो
और क्यों भला सहती हूँ मैं?

Saturday, February 05, 2005

चाहती तो नहीं

चाहती तो नहीं
कि मेरी यादें तुम्हें परेशान करें,
मेरी बातें, मेरा चेहरा हैरान करें।
पर जब ये कहते हो
कि तुम मुझे याद करते हो,
तो अच्छा तो लगता है!

चाहती तो नहीं
कि तुम मेरे लिए रुको,
या कभी मेरे लिए झुको।
पर जब ये कहते हो
कि चलते हुए कभी ठिठकते हो,
तो अच्छा तो लगता है!

चाहती तो नहीं
कि तुम्हें किसी बंधन में बाँधू,
प्रीत को बोझ बनाकर तुमपर लादूँ।
पर जब ये कहते हो
कि बिन बाँधे ही बँधते हो
तो अच्छा तो लगता है!

Friday, February 04, 2005

देखना, यों अकेले हो मत जाना

जब चहल-पहल होगी सब ओर,
कुछ बातें होंगी और कुछ शोर,
उस समय मेरी याद में खो मत जाना ।
देखना, यों अकेले हो मत जाना ।

यथार्थ की माँग पर चलना ज़रूरी हो,
तुम्हारी मंज़िल और मेरे बीच बड़ी दूरी हो,
तब आँखों में मेरे सपने भरे सो मत जाना ।
देखना, यों अकेले हो मत जाना ।

जब मेहनत पर सफलताएँ मिलने लगें,
होंठों पर एक मुस्कान खिलने लगे,
तब दिल में मुझे याद कर रो मत जाना ।
देखना, यों अकेले हो मत जाना ।

Thursday, February 03, 2005

किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी

किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।
कह ना पाई जो जुबानी लिखूँगी ।

जब लमहे ग़ुज़ारे तनहा बैठै-बैठे,
तब आई यादों की निशानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।

राजा था सपनों में रानी थी बैठी,
खो गए कहाँ राजा रानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।

बाहर था सूखा और हवा गर्म थी,
आँखों से बरसा जो पानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।

नज़ारों को तकते-ही-तकते वो कैसे
खिंच गई थी चादर धानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।

हसरतें दबी ऐसी, जो फिर ना निकलीं
दुनिया ने कैसे ना जानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।

सुलझे दिमाग़ और मजबूत दिल ने
क्यों तक़दीर से हार मानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।

Wednesday, February 02, 2005

ज़िन्दग़ी मुझसे भागना नहीं

ज़िन्दग़ी मुझसे भागना नहीं!

अबतक बहुत कुछ तूने दिया है,
तेरा मधुर रस मैंने पिया है ।
फिर भी आज मुझे स्वप्न सा लगता है
इस स्वप्न से मुझे जागना नहीं ।

ज़िन्दग़ी मुझसे भागना नहीं!

नहीं चाहिए मुझे गाढ़े गुलाल
पर छीनना न मुझसे हलका रंग लाल ।
एक धीमी मधुर गुनगुन काफी होगी,
ना सुनूँ मैं फाग ना सही ।

ज़िन्दग़ी मुझसे भागना नहीं!

चुपके से आ जाना कोई क्यों जाने,
मैं तो खुश रहूँगी चाहे कोई ना माने ।
बुलबुल न समझे, मंजर न जानें
तू आ जाना चाहे बोले काग ना सखी ।

ज़िन्दग़ी मुझसे भागना नहीं!

Sunday, January 30, 2005

जब इस बार

जब इस बार मिलें हम तुम, मैं खुद से ही डर जाऊँ तो?
जड़ हो जाऊँ क़दम अपने मैं आगे ना कर पाऊँ तो?

बढ़कर थाम तो लोगे मुझको, बाहों में भर लोगे क्या?
साँसें रुकने लगें तब भी जीवन मेरा नया कर दोमे क्या?

और कहीं जो टूट मैं जाऊँ, आँसू रुकने पाएँ ना मेरे,
बिना उन्हें हाथों से पोछे, सीने में भर लोगे क्या?

नई-नई सी परिस्थिति में मैं थोड़ा घबराऊँ तो?
बोल नहीं पाऊँ मैं कुछ भी, कुछ कर भी नहीं मैं पाऊँ तो?

झुक भी जाएँ आँखें पर उनकी भाषा पढ़ लोगे क्या?
मेरे मन के आँगन को फिर भी प्रेम से भर दोगे क्या?

दो पल में जीवन जी लूँ सारा ऐसा कुछ कर कर दोगे क्या?
और कर्तव्य बुलाए जब तो, मुझे छोड़ चल दोगे क्या?

अनिवार्य होगा बिछड़ना फिर से, जानकर भी रोक नहीं मैं पाऊँ तो?
बुरा तो नहीं मानोगे यदि एक बार तुम्हारे बाद दो बूँदें मैं बरसाऊँ तो?

Saturday, January 15, 2005

अधूरी देन

(एक संग्रहालय [museum] में एक मध्यकालीन अधूरी प्रेम-कहानी की पांडुलिपि देखकर ये कविता मन में आई।)

कौन था रे तू?
क्या व्यथा थी तेरी?
जो यों तूने लिख छोड़ी,
एक प्रेम-कहानी अधूरी।

क्या कुर्बान हो गया था तू
प्रेम या कर्त्तव्य की राह पर?
क्या पूरा कर पाने से पहले ही
मिट चुका था अपनी किसी चाह पर?

क्या तेरा प्रेम एकतरफ़ा था?
क्या दिलो के तार तुम्हारे मिले नहीं?
जो कल्पना के कमल तूने खिलाए थे,
क्या वे दूसरी ओर कभी खिले नहीं?

या फ़िर थी कोई मजबूरी
जिसकी वज़ह से तुम्हारा प्रेम
आ नहीं पाया विश्व के सामने, पर
दे गया इतिहास को ये अधूरी देन।

मैं कल रात नहीं सोई

मैं कल रात नहीं सोई!

दिल तड़प रहा था
तुम्हें पास बुलाने को
आँखें तरस रही थीं
एक झलक बस पाने को ।
व्यथा बड़ी थी, पर तुम्हारी
ख़ातिर ही मैं नहीं रोई ।

मैं कल रात नहीं सोई!

मुड़कर देखने का जी था,
पर फिर भी मैं मुड़ी नहीं ।
थक कर रुक जाने की इच्छा
होने पर भी रुकी नहीं ।
दुखी न होना, दोष न देना,
मैंने बात नहीं खोई ।

मैं कल रात नहीं सोई!

सुबह पूछा किसी ने तो
मैंने बना दिए बहाने,
मेरे दिल की धड़कन का
कोई अर्थ क्योंकर जाने?
जीवन में तुम्हें बसाने की तड़प में,
सच, मेरा हाथ नहीं कोई ।

मैं कल रात नहीं सोई!

आज अगर तुम यहाँ होते

आज अगर तुम यहाँ होते ।

नई जगह और नए नज़ारों
व्यस्त सड़क और भरे बाज़ारों
में मेरे चलने के अरमाँ
उत्साह न सहसा यों खोते ।

आज अगर तुम यहाँ होते ।

सूनी गलियों, शांत इशारों,
में पनपने वाले मेरे विचारों,
को महसूस बेबसी ना होती
और वे यों अकेले ना रोते ।

आज अगर तुम यहाँ होते ।

लोगों से यों घिरी हुई
चहल-पहल में मिली हुई,
मैं जीवन से भागना नहीं चाहती
इसके बीज अगर हम साथ बोते

आज अगर तुम यहाँ होते ।