Wednesday, November 09, 2005

क्यों गीत नहीं लिखती हूँ मैं अब

बेचैन हमेशा मन रहता था
"सँभल-सँभल" यह दिल कहता था
पागलपन कहाँ जाता मेरा
गीत वही बनकर बहता था।

पास ज़रा और फिर तुम आए
पहले तो हम थे घबराए
जाने क्या हो जाएगा जो
बाँहों का घेरा कस जाए।

डर ने कविताओं पर मेरी
छुअन अजब कसक की फेरी
और कहाँ जाता फिर वो भी
बन कर गीत तान एक छेड़ी।

पर जब उन बाँहों में घिर कर
सुकूँ कहीं छाया इस दिल पर
जब बातें सब जो थीं मेरी
बोझ दिया उनका तुम पर धर,

गीतों में क्या कहना था अब
जो अस्फुट बातें निकलीं तब
गीत वही बनती थीं पहले
गीत नहीं लिखती हूँ मैं अब।

गीत शायद फिर निकलेंगे
कदम एक और जब हम लेंगे
जब फिर से बेचैनी होगी
कुछ हम जब फिर कह न सकेंगे।

1 comment:

Manish Kumar said...

गीत शायद फिर निकलेंगे
कदम एक और जब हम लेंगे
जब फिर से बेचैनी होगी
कुछ हम जब फिर कह न सकेंगे।

bahut khoob ! Sahi kaha aapne jab dil bechain ho to shabda apne aap milte hain !