Wednesday, October 26, 2005

पुराना दर्द

दर्द वही है इतने दिन से
गीत बन बहता भी नहीं अब
चुक गए नग़मे, ख़तम हैं किस्से
बातों में रहता भी नहीं अब।

पहली बार जब गीत बना था
लोगों के मन को भाया था।
संग में तड़पा किसी और को
ख़ुद पर ही वह इतराया था।

बासी हो गए गीत सभी वो
ऊब चुके हैं सब जन सुनकर
तड़प भले अब भी उतनी हो
ताजी नहीं रही वो मन पर।

गर्व दर्द सहने का शायद
थक चुका है ऊँचा रहकर।
कड़वाहट ही एक बची है
रह जाती जो हाथें मलकर।

दबा-छिपा कर हँसी-हँसी मे
कोशिश ये हम भी करते हैं
नहीं सुनाए किस्से इसके
बढ़ जाने का दम भरते हैं।

टीस कहाँ लेकिन कम होती
कब रुकता है जलना दिल का?
कहाँ खतम होते हैं आँसू
चैन कहाँ है मन को पड़ता?

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