Wednesday, October 26, 2005

पुराना दर्द

दर्द वही है इतने दिन से
गीत बन बहता भी नहीं अब
चुक गए नग़मे, ख़तम हैं किस्से
बातों में रहता भी नहीं अब।

पहली बार जब गीत बना था
लोगों के मन को भाया था।
संग में तड़पा किसी और को
ख़ुद पर ही वह इतराया था।

बासी हो गए गीत सभी वो
ऊब चुके हैं सब जन सुनकर
तड़प भले अब भी उतनी हो
ताजी नहीं रही वो मन पर।

गर्व दर्द सहने का शायद
थक चुका है ऊँचा रहकर।
कड़वाहट ही एक बची है
रह जाती जो हाथें मलकर।

दबा-छिपा कर हँसी-हँसी मे
कोशिश ये हम भी करते हैं
नहीं सुनाए किस्से इसके
बढ़ जाने का दम भरते हैं।

टीस कहाँ लेकिन कम होती
कब रुकता है जलना दिल का?
कहाँ खतम होते हैं आँसू
चैन कहाँ है मन को पड़ता?

Monday, October 10, 2005

मैं एक सपना ही हूँ

क्या हुआ जो मुझको छोड़ सनम
सपनों में खो गए तुम?
मैं भी तो एक सपना ही हूँ।

क्या हुआ जो मुँह को मोड़ सनम
चले कहीं हो गए तुम?
अख़िर मैं एक सपना ही हूँ।

देख नहीं सकते हो मुझको
और भला छू सके कब?
सच में मैं एक सपना ही हूँ।

मूँद के आँखें जो मिलता है
उसमें पाया है जो सब।
वैसे ही मैं सपना ही हूँ।

सपना किसका कब हो पाता
भाग रहे क्यों मेरे पीछे?
मान लो, मैं एक सपना ही हूँ।

Friday, October 07, 2005

क्यों उदास हुए महबूब मेरे?

क्यों उदास हुए महबूब मेरे?

कुछ ठोकरें लगीं, थोड़े घुटने छिले,
माना दुनिया से हैं शिकवे-ग़िले,
पर बदलेगी थोड़ी दुनिया
बदलेंगे थोड़े हम
फिर क्यों भला रहे हमें उदासियाँ घेरे?

क्यों उदास हुए महबूब मेरे?

कुछ तो बचपना था, कुछ समझदारी थी
कुछ तो समझ ख़ुदग़र्ज़ी से हारी थी,
पर भलाई करने की
कोशिश भी तो थी,
फिर क्यों भला रहे हमें उदासियाँ घेरे?

क्यों उदास हुए महबूब मेरे?