Sunday, October 08, 2006

लम्बा इंतज़ार


इंतज़ार हो ऐसा दिन तो
कम-से-कम मैं गिनने पाऊँ
ऐसा हो आओ ना जबतक
तब तक मैं बस रोती जाऊँ।


दिन हों उसमें बस इतने कि
जग भी मुझको छोड़ अकेला
बढ़ जाए वो क़दम-दो-क़दम
जाए ना पर मुझे ढकेला।


इंतज़ार जो होता कुछ दिन
उसको मैं भी गले लगाती
उसे प्यार का भाग बताकर
मीठे दर्द के साथ बिठाती।


सपने बुनती मिलन के दिन के
घर को अपने खूब सजाती,
ज्यों-ज्यों दिन आते जाते मैं
भीतर-बाहर दौड़ लगाती।


क्या करूँ उस इंतज़ार का
गिनती जिसमें छूट है जाती,
सूख जाते आँसू जिसमें
दुनिया मुझको छोड़ न पाती।


नहीं दर्द रहता है मीठा,
नहीं तड़प हलकी रहती है,
पागलपन चढ़ता जाता है,
बेचैनी बढ़ती रहती है।


सपने देख-देख कर मन भी
और नहीं फिर बुन पाता है,
कड़वाहट-सी भर जाती है
जग नहीं बिलकुल भाता है।


और शब्द भी थक जाते हैं,
कविताएँ हो चुप जाती हैं,
बार-बार बस वही बोलकर
कलम भी आखिर रुक जाती है।


ये लम्बा जो इंतज़ार है
मैं नहीं सह पाती इसको,
कहाँ रोऊँ, और क्या करूँ मैं,
जाकर दर्द सुनाऊँ किसको?

Saturday, August 26, 2006

कारण क्या मेरे रोने का


कारण क्या मेरे रोने का
क्या डर है तुमको खोने का?


प्यार हमारा सह न सकेगा
इतने लम्बे इस विरह को?
परेशान क्या इससे होती,
क्या भय लगता है ये मुझको?


नहीं क्षणिक भी ऐसी कोई
चिंता मुझको खाती है
होगा कुछ बुरा विरह से
नहीं ये बात सताती है।


और अगर कुछ होना हो तो
रोना क्या उसके लिए?
नहीं चाहिए वह प्रेम जो
टूटे कुछ विरह के किए।


नहीं ये कल की सोच नहीं है
आज जो मुझे रुलाती है।
नहीं भविष्य की कोई कल्पना
है जो मुझे डराती है।


आज का हर एक लम्हा लेकिन
प्रश्न ये मुझसे करता है,
"क्यों ये विरह? बताओ मुझको"
कह-कह मानो जलता है।


सारी गलियाँ जो घूमे थे
साथ हम दोनों मिलकर
"आज अकेली क्यों हो आई"
पूछती हैं चौंक कर।


दर्द वो सारे जिनको तुमने
बस छूकर ही दबा दिया था,
हँसते हैं अब मेरे ऊपर,
कभी महत्व न जिन्हें दिया था।


ये शाम मेरे पास आकर
रोज़ शिकायत करती है,
"तनहाई क्यों?" पूछती हुई
आहें हरदम भरती है।


दे तो देती उत्तर उनको
लेकिन उससे क्या होता है?
चुप हो जाते हैं वो पर
विश्वास कहाँ उनको होता है,


कि होगा कुछ अच्छा इससे
नहीं विरह अखरेगा कल को,
नहीं कभी होगा पछतावा
क्यों खोया हमने इस पल को।


खैर चलो वो चुप तो होते
क्या करूँ पर दिल का अपने
चुप नहीं होता, नहीं पोछता
आँसू जब से टूटे सपने।


जब इन सारे सवालों से मैं
ख़ुद छिदती-सी जाती हूँ।
नहीं कुछ और सूझता तब
बस आँसू हैं जो बहाती हूँ।

Sunday, August 06, 2006

प्रारंभ विरह का


बहुत है सिमटी फिर भी दुनिया नहीं हुई छोटी इतनी
पार सात समंदर रहकर भी ना कोई बने विरही।


आती हैं तस्वीरें, बोली भी तो मैं सुन लेती हूँ,
पर भला पूरी हो सकती है उस छुअन की कमी कभी?


जीवन अलग तेरा-मेरा, सुख-दुःख सब अपने-अपने
पहले बाँटू इन सबको, फिर कैसे संग देखूँ सपने?


विरह की थी जिसे ज़रूरत, बड़ा ही कच्चा प्रेम था उसका,
पास भी होकर नहीं छूटते, प्रिय, मधुर सपने अपने।

Friday, August 04, 2006

जीवन चला गया मैं पल भर बैठ नहीं पाई


जीवन चला गया मैं पल भर बैठ नहीं पाई
जाते हुए भी आखिरी वह भेंट नहीं पाई।


छुआ अभी था होठों को कि प्याला छीन लिया
पर स्वाद चढ़ा जो होठों पर समेट नहीं पाई।


अभी थकान चढ़ी हुई थी बाग को सिंचवाने की
लुट गया वो मैं पल भर भी लेट नहीं पाई।


है मेरा भी प्यार कहीं पर, फिर भी जिसमें
चाहत उगती, देख कभी वो खेत नहीं पाई।

Saturday, July 29, 2006

कौन सा गीत


कौन-सा गीत लिखूँ कहो मैं
जो विरह की अमर गाथा हो
सब विरहियों को दे चैन यों
कि स्वीकार लूँ मैं इस विरह को!


बहाऊँ कैसे वह आँसू मैं
बुझाए वो तपन इतनों की
जिससे सार्थक लगे टूटनी
दुनिया अपने भी स्वप्नों की।


क्या उपकार करूँ यादों से
और किसका करूँ बताओ
कि हर चीज़ मेरी अपनी थी
कह दूँ उनसे याद बन जाओ।



एक ही हश्र


हर लम्हा
जो मैंने चुराया था
वक़्त के चंगुल से,
दुनिया के हाथों से,
हमारे लिए,
उन सबका का
एक ही हश्र हुआ है।


सब-के-सब
बस याद बन कर रह गए हैं।

Wednesday, June 28, 2006

तुम चले जाओगे

ढूँढ़ा हमने दिन-रात एक कर
अपने लिए एक आशियाना।
सजाया उसे, झगड़े हम
परदों के रंग पर, रसोई के बर्तनों पर।
और अब जब बना है वो तो तुम चले जाओगे।

नहीं चढ़ पा रहे थे पहाड़,
नहीं उतर पा रहे थे नदी में।
सामना किया अक्षम शरीर का,
और अब जब साथ चल सकती हूँ तुम्हारे
तो सब कुछ छोड़ कर तुम चले जाओगे।

एक छोटी-सी गाड़ी जो हमें
दूर-दूर ले जा सके।
सपने में जो देखी जगहें
वहाँ तक पहुँचा सके।
मिली जब वो है तो भूल सब तुम चले जाओगे।

भागते रहे, दौड़ते रहे,
ज़िन्दग़ी को पकड़ने को,
ओर अब जब मिले हैं कुछ पल
कि जी सकें उसे
तो छोड़ इसको ही अब तुम चले जाओगे।