Thursday, June 23, 2005

हम दो साथी आशा से हीन

हम दो साथी आशा से हीन।

मंज़िल अपनी हो सकती नहीं
फिर भी चाहत है बढ़ने की।
मंज़िल ही तो छिन सकती है
रास्ता कौन लेगा छीन?

हम दो साथी आशा से हीन।

इज़ाज़त नहीं है रुकने की,
बाँहों में तुमको भरने की।
बस हाथ पकड़ चलते हैं
जब तक साँसें न हो जाएँ क्षीण।

हम दो साथी आशा से हीन।

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