Monday, June 27, 2005

मुझे चाँद ना कहा करो

मुझे चाँद ना कहा करो महबूब मेरे।

क़िस्मत में लिखा है उसकी
बस अकेले यों ही रहना।
तारे तमाशा देखते दूर से, उसे
दर्द अपना खुद ही है सहना।
क्या करे अगर कभी उदासियाँ उसे घेरें?
मुझे चाँद ना कहा करो महबूब मेरे।

उसकी चाँदनी में यों तो
ठंढक दुनिया सारी पाती है।
पर उसकी ठंढी आहें कहाँ
किसी के दिल को तड़पाती हैं?
ले कहाँ पाया कभी वो प्रियतम के संग फेरे।
मुझे चाँद ना कहा करो महबूब मेरे।

No comments: