डर नहीं है बिछड़ने का भी ऐ सनम,
ले भी गया मुझे कोई तो क्या वो पाएगा?
क्या था मेरे पास जो तुम्हें न दे दिया
हार कर वो खुद ही मुझे लौटा जाएगा।
रहे नहीं वो दिन कि हर एक गुलशन में
फूल दिल का खिलने के क़ाबिल होता हो,
छूट गई दुनिया जहाँ मन का उड़ता पंछी
तेज दौड़ने से कभी हासिल होता हो।
आशियाना मिल गया है, मिल गए दाने
निकला बाहर उनसे तो फिर जी न पाएगा।
आब-ए-जन्नत मिल गई है इस दिल को
और अब वो सादा पानी पी न पाएगा।
Sunday, July 24, 2005
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3 comments:
Beautiful.
This is nice stuff. But if you read it again and again, you'd see that in every single line, there is at least one extra word that should be cut down for the sake of better flow.
The meter might change and some rework could be required, but in poetic lines, not every subject needs an object. So its always better to do without it.
The last stanza needs a bit of refinement too - less in thought, more in flow. You could look into that too.
Decent work otherwise!
Keep it going!
-- Akshaya
बढ़िया कवितायें हैं । बधाई ।
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