Friday, July 15, 2005

कल रात क्या ऐसा नहीं लगा

कल रात क्या ऐसा नहीं लगा,
कुछ कहना था और नहीं कहा?

नहीं ऐसा कि डरते थे पर
समाँ ही मानो नहीं बँधा।

समझ गए हम इतना क्या कि
कहने को कुछ नहीं बचा?

किस्से पूरी दुनिया के हैं
दासताँ अपनी गई कहाँ?

कुछ पल जो मेरे अपने हैं
सब चीज़ें उनको लें न चुरा।

कल रात क्या ऐसा नहीं लगा,
कुछ कहना था और नहीं कहा?

1 comment:

Anonymous said...

Wow!

My first time here and I am greedily enjoying all your poems - guess I'll just buy the book. :)