यों दुनिया को भूलकर कब तक चलेंगे भला?
ख़ामोश सपनों से, बेबस आहों से,
बेसब्र दिल से, पर मजबूर निग़ाहों से,
किसे कहो कभी कुछ है मिला?
यों दुनिया को भूलकर कब तक चलेंगे भला?
सफ़र ऐसा जिसकी कोई भी मंज़िल नहीं,
जो दिमाग़ कहता है जब मानता वो दिल नहीं,
कशमकश में ऐसी देर तक किसका जीवन चला?
यों दुनिया को भूलकर कब तक चलेंगे भला?
कभी सोचा है क्या होगा ग़र हम नहीं होंगे कल,
जो गीत लिखे मेरे लिए, उनसे किसी और को पाओगे छल?
पर अकेले भी कभी किसी से, जीवन का बोझ है टला?
यों दुनिया को भूलकर कब तक चलेंगे भला?
Thursday, March 10, 2005
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