Friday, March 11, 2005

दो शब्द तुम्हारे लिए

क्यों चैन नहीं आता मुझे
कुछ भी मेरे किए,
लिख ना छोड़ूँ जबतक
दो शब्द तुम्हारे लिए।

जब दुनिया हाथों से फिसल सी जाती है,
सब कुछ अचानक दूर हो जाता है।
तब किसका अहसास मुझे घेरता है,
कौन कानों में अनसुना गीत गुनगुनाता है?
मदहोशी का जाम-सा पिए,
तब लिखती हूँ मैं,
दो शब्द तुम्हारे लिए।

जब नींद नहीं आती है मुझको
पर सपनों से भारी हो पलकें
खुलने को तैयार न हों और
वे सपने चेहरे पर झलकें।
उनका बोझ उतारने के लिए
तब लिखती हूँ मैं
दो शब्द तुम्हारे लिए।

सोचती हूँ ये भी कभी-कभी,
क्या है इनमें? कुछ भी नहीं,
कितनों ने ही सुना-देखा ये
बात बिलकुल भी नई नहीं।
फिर भी अपने आप के लिए
लिख ही जाती हूँ मैं
दो शब्द तुम्हारे लिए।

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