Sunday, March 13, 2005

बदलाव

दुनिया तो नहीं बदली अभी
ये नग़मे नहीं हो सकते नए।
बिखरे तो होंगे ये पहले भी
फ़िज़ाओं में, मैंने ही नहीं सुने।

जाने कैसे ना दिखे मुझे
ये फूल रंग हज़ार लिए?
कैसे आँखों को दे गई धोखा
ये ज़मीं सोलह श्रृंगार किए?

क्यों कभी ये हवाएँ सर्द
मन में तरंगें उठा न सकीं?
कैसे कभी चाँदनी सपनों से
बोझिल पलकें झुका ना सकीं?

क्यों कभी भींगी दूब पर चलते
क़दम मेरे लड़खड़ाए नहीं?
क्यों कभी मुझे गुदगुदाने वाले
सपने पास आए नहीं?

कैसे कभी मन नहीं मचला,
किसी को पास बुलाने को?
कहाँ कभी मुश्किलें झेलनी
पड़ीं ख़ुद को सुलाने को?

कहाँ कभी मन में ये आया
दम भर भीगूँ बारिश में?
क्यों न कभी मैं मचली
उस आसमान की ख़्वाहिश में?

लम्हे ना कभी भारी पड़े,
गला कभी ना भर आया।
कहाँ कभी कोई बोझ मेरे
छोटे से दिलपर आया?

कभी बिना रुके तो ऐसे
कलम भी मेरी चली नहीं
गीत एक इंसान की ख़ातिर
लिखने को मचली नहीं।

तारीफ़ कहाँ कभी किसी की
चमक मेरी आँखों में लाई?
कहाँ किसी की पुकार कभी
चहक मेरी बातों में लाई?

क्यों ना इन 'बेवक़ूफ़ी' भरी
बातों में मतलब दिखा?
क्यों ना कभी यादों की कलम से
दिल पर किसी का नाम लिखा?

बंधन की आज़ादी को कभी
क्यों ना मैंने पहचाना?
जो शीशे सा साफ़ है
वो राज़ ना मैंने क्यों जाना?

सच ही कहा जिसने भी कहा,
क़िस्मत से ज़्यादा, समय से पहले,
मिलता नहीं किसी को कुछ है,
कुछ भी कह दे, कुछ भी कर ले।

वरना आँखों के आगे पड़े
सपने को क्यों ना पहचाना?
दिल में ही जो गीत छिपा था
क्यों न उसे अपना माना?

1 comment:

Anonymous said...

Bahut khoob.....

When I read your archives, one by one, poem by poem, it seems, these are my words only, which flowed out with the ink of your pen.

Regards
Ripudaman