मन को तो रंग ना पाओगे
तन रंग दो चाहे कितनी बार,
ऊपर ही ये रह जाएँगे
मेरे, रंग हरे और लाल।
मन कहीं और जा बैठा है,
पर उनके हाथों में गुलाल नहीं।
इन हाथों ने रँगा जिनको भी,
हटा कभी ये ख़्याल नहीं।
बेचैन ये मन जो बैठा है,
रँगने को होकर तैयार।
दौड़ा ही चला वो जाएगा,
वो आवाज़ तो दें बस एक बार।
Saturday, March 26, 2005
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