शिक़ायतें तो कीं
पर क्या कभी बताया मैंने,
कितनी छोटी-बड़ी बातों से तुम्हारी
पहने मैंने खुशियों के गहने?
क्या कभी तुम्हें पता चला,
कंधे पर तुम्हारे पल भर सर रखकर
कैसा अनोखा सुकून मुझे मिला?
क्या दिखाई मैंने चमक इन आँखों की
जो आई थी उस पल, जब हुआ महसूस
कि तुम करते हो परवाह मेरी बातों की?
क्या कभी दिखा पाई दिल का वो कोना
जो तुम्हारी एक नज़र मुझपर पड़ते ही
भूल जाता है खाना और सोना?
क्या उन दुआओं का असर तुमपर पड़ता है,
जो तब निकलती हैं जब मेरा दिल
तुम्हारे मुश्किल सब्र की पूजा करता है?
क्या कभी मैंने कहा तुमसे
कि मेरा चेहरा क़ाबिल नहीं इतना
कि दिखा सके सारे भाव मन के,
जो तुम्हारी वजह से आते हैं,
और सिर से लेकर पैर तक मुझे
खुशियों से सराबोर कर जाते हैं?
क्या कभी बताया मैंने?
Thursday, March 31, 2005
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