क्या सज़ा दूँ जो तुम्हारी हो,
पर वो नहीं मेरी हो?
कैसे समझाऊँ तुम्हें
दर्द इंतज़ार का?
क्यों लेते हो इम्तिहान
यों मेरे प्यार का?
क्या करूँ कि फिर से
कभी ना ये देरी हो?
क्या सज़ा दूँ जो तुम्हारी हो,
पर वो नहीं मेरी हो?
ख़ुद को खो चुकी मैं
जाने कब तुम्हारे आगे।
अब मेरे वश में नहीं ग़र
रातों में आँखें मेरी जागें।
क्या करूँ कि एक बार
फिर नींद मेरी चेरी हो?
क्या सज़ा दूँ जो तुम्हारी हो,
पर वो नहीं मेरी हो?
Saturday, February 19, 2005
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