इतना सताते हो
और क्यों भला सहती हूँ मैं?
तरसा देते हो रोज़ दो शब्दों के लिए,
इतना नहीं तड़पी मैं कभी किसी के कुछ किए।
फिर भी आस दिलाते हो
तो क्यों बैठी रहती हूँ मैं?
इतना सताते हो
और क्यों भला सहती हूँ मैं?
नींदें उड़ाकर चैन से सो जाते हो,
एक झलक दिखाकर कहीं खो जाते हो।
फिर भी जब सपने दिखाते हो
तो क्यों उनमें बहती हूँ मैं?
इतना सताते हो
और क्यों भला सहती हूँ मैं?
परेशान करते हो, हँस के जी जलाते हो,
और बताओ भला फिर भी क्यों भाते हो?
शिक़ायतें कभी ख़ुद भी सुझाते हो
तो भी कहाँ कहती हूँ मैं?
इतना सताते हो
और क्यों भला सहती हूँ मैं?
Friday, February 11, 2005
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