शिक़ायतें तो कीं
पर क्या कभी बताया मैंने,
कितनी छोटी-बड़ी बातों से तुम्हारी
पहने मैंने खुशियों के गहने?
क्या कभी तुम्हें पता चला,
कंधे पर तुम्हारे पल भर सर रखकर
कैसा अनोखा सुकून मुझे मिला?
क्या दिखाई मैंने चमक इन आँखों की
जो आई थी उस पल, जब हुआ महसूस
कि तुम करते हो परवाह मेरी बातों की?
क्या कभी दिखा पाई दिल का वो कोना
जो तुम्हारी एक नज़र मुझपर पड़ते ही
भूल जाता है खाना और सोना?
क्या उन दुआओं का असर तुमपर पड़ता है,
जो तब निकलती हैं जब मेरा दिल
तुम्हारे मुश्किल सब्र की पूजा करता है?
क्या कभी मैंने कहा तुमसे
कि मेरा चेहरा क़ाबिल नहीं इतना
कि दिखा सके सारे भाव मन के,
जो तुम्हारी वजह से आते हैं,
और सिर से लेकर पैर तक मुझे
खुशियों से सराबोर कर जाते हैं?
क्या कभी बताया मैंने?
Thursday, March 31, 2005
Tuesday, March 29, 2005
इतनी देर लगाते हो
इतनी देर लगाते हो
कि आँसू तक सूख जाते हैं।
सुबह शाम में, शाम रात में
बदल जाती है और
आसमान पर तारे छा जाते हैं।
दिन भर चहकती चिड़िया
सो जाती है और
बिछड़े दीवाने कुछ गाते हैं।
आने ना आने की तुम्हारी
गिनती सी गिनते
जाने कब हम भी सो जाते हैं।
इतनी देर लगाते हो
कि आँसू तक सूख जाते हैं।
कुछ देर तक तो हमें भी
इंतज़ार के ये पल
बहुत ही भाते हैं।
आओगे तो क्या नखरे करेंगे
मन-ही-मन में
हम वो दोहराते हैं।
पर बीतते समय के साथ
सिर्फ़ बेचारगी बचती है।
जब आख़िर में आते हो,
नाज़-नख़रे धरे ही रह जाते हैं।
इतनी देर लगाते हो
कि आँसू तक सूख जाते हैं।
कि आँसू तक सूख जाते हैं।
सुबह शाम में, शाम रात में
बदल जाती है और
आसमान पर तारे छा जाते हैं।
दिन भर चहकती चिड़िया
सो जाती है और
बिछड़े दीवाने कुछ गाते हैं।
आने ना आने की तुम्हारी
गिनती सी गिनते
जाने कब हम भी सो जाते हैं।
इतनी देर लगाते हो
कि आँसू तक सूख जाते हैं।
कुछ देर तक तो हमें भी
इंतज़ार के ये पल
बहुत ही भाते हैं।
आओगे तो क्या नखरे करेंगे
मन-ही-मन में
हम वो दोहराते हैं।
पर बीतते समय के साथ
सिर्फ़ बेचारगी बचती है।
जब आख़िर में आते हो,
नाज़-नख़रे धरे ही रह जाते हैं।
इतनी देर लगाते हो
कि आँसू तक सूख जाते हैं।
Monday, March 28, 2005
बस यों ही
क्या सुनाऊँ दास्तान अपनी
अब शब्द भी नहीं मिलते।
किसे देखा, क्या सोचा
अब होठ ही नहीं हिलते।
किसने कहा रेगिस्तान में
कभी फूल नहीं खिलते?
हमने देखा है क्षितिज तक जा
धरती को आसमान से मिलते।
देखने भर से पर मिलती नहीं सिफ़त
कि जो देखा हो, वो बयाँ भी करते।
फूल से हलकी, जान से भारी
रखी एक चीज़ है, बस यों ही दिल पे।
अब शब्द भी नहीं मिलते।
किसे देखा, क्या सोचा
अब होठ ही नहीं हिलते।
किसने कहा रेगिस्तान में
कभी फूल नहीं खिलते?
हमने देखा है क्षितिज तक जा
धरती को आसमान से मिलते।
देखने भर से पर मिलती नहीं सिफ़त
कि जो देखा हो, वो बयाँ भी करते।
फूल से हलकी, जान से भारी
रखी एक चीज़ है, बस यों ही दिल पे।
Saturday, March 26, 2005
मन
मन को तो रंग ना पाओगे
तन रंग दो चाहे कितनी बार,
ऊपर ही ये रह जाएँगे
मेरे, रंग हरे और लाल।
मन कहीं और जा बैठा है,
पर उनके हाथों में गुलाल नहीं।
इन हाथों ने रँगा जिनको भी,
हटा कभी ये ख़्याल नहीं।
बेचैन ये मन जो बैठा है,
रँगने को होकर तैयार।
दौड़ा ही चला वो जाएगा,
वो आवाज़ तो दें बस एक बार।
तन रंग दो चाहे कितनी बार,
ऊपर ही ये रह जाएँगे
मेरे, रंग हरे और लाल।
मन कहीं और जा बैठा है,
पर उनके हाथों में गुलाल नहीं।
इन हाथों ने रँगा जिनको भी,
हटा कभी ये ख़्याल नहीं।
बेचैन ये मन जो बैठा है,
रँगने को होकर तैयार।
दौड़ा ही चला वो जाएगा,
वो आवाज़ तो दें बस एक बार।
Thursday, March 24, 2005
सब कुछ पाने की कोशिश में
सब कुछ पाने की कोशिश में
सब कुछ छिन तो ना जाएगा?
दुनिया भी देखनी है
और तुम्हें भी पाना है।
तुम्हें साथ लिए हुए
क्षितिज के पार जाना है।
सब एक साथ ही मिल जाए
क्या वो दिन भी आएगा?
सब कुछ पाने की कोशिश में
सब कुछ छिन तो ना जाएगा?
धरती का धैर्य चाहिए
स्वच्छंदता भी आकाश की।
महलों की रौशनी भी
परीक्षा भी वनवास की।
कैसे कोई सब रागों को
एक साथ ही गाएगा?
सब कुछ पाने की कोशिश में
सब कुछ छिन तो ना जाएगा?
जो नहीं है वह पाना है
जो है वह भी न छूटे।
बँधे नए बंधन प्राणों के
पर जो हैं वो ना टूटें।
क्या आसमान और ज़मीन को
कोई एक कर पाएगा?
सब कुछ पाने की कोशिश में
सब कुछ छिन तो ना जाएगा?
सब कुछ छिन तो ना जाएगा?
दुनिया भी देखनी है
और तुम्हें भी पाना है।
तुम्हें साथ लिए हुए
क्षितिज के पार जाना है।
सब एक साथ ही मिल जाए
क्या वो दिन भी आएगा?
सब कुछ पाने की कोशिश में
सब कुछ छिन तो ना जाएगा?
धरती का धैर्य चाहिए
स्वच्छंदता भी आकाश की।
महलों की रौशनी भी
परीक्षा भी वनवास की।
कैसे कोई सब रागों को
एक साथ ही गाएगा?
सब कुछ पाने की कोशिश में
सब कुछ छिन तो ना जाएगा?
जो नहीं है वह पाना है
जो है वह भी न छूटे।
बँधे नए बंधन प्राणों के
पर जो हैं वो ना टूटें।
क्या आसमान और ज़मीन को
कोई एक कर पाएगा?
सब कुछ पाने की कोशिश में
सब कुछ छिन तो ना जाएगा?
Monday, March 21, 2005
अभी नहीं
ऐ हवा! अभी दूर ही रहना
अभी उन्होंने छुआ है मुझको।
वो अहसास अगर भूल पाऊँ तो
तेरा भी हक़ दूँगी तुझको।
पत्तों अभी आवाज़ न करना
कानों में भरे हैं लफ़्ज़ उनके।
गूँज बंद वो हो पाए तो
गीत भी सुन लूँगी मैं तुमसे।
बारिश ना बाल मेरे भिगोना
छिपी है उँगलियों की उनकी
हलकी-सी छुअन जो इनमें
होंगी वही साथी विरहन की।
दोस्तों चेहरा उदास ज़रूर है,
पर तसल्ली देने अभी ना आना।
जो पल बिखरे हैं मेरे अभी
सहेजे बिना कब दिल है माना?
अभी उन्होंने छुआ है मुझको।
वो अहसास अगर भूल पाऊँ तो
तेरा भी हक़ दूँगी तुझको।
पत्तों अभी आवाज़ न करना
कानों में भरे हैं लफ़्ज़ उनके।
गूँज बंद वो हो पाए तो
गीत भी सुन लूँगी मैं तुमसे।
बारिश ना बाल मेरे भिगोना
छिपी है उँगलियों की उनकी
हलकी-सी छुअन जो इनमें
होंगी वही साथी विरहन की।
दोस्तों चेहरा उदास ज़रूर है,
पर तसल्ली देने अभी ना आना।
जो पल बिखरे हैं मेरे अभी
सहेजे बिना कब दिल है माना?
Saturday, March 19, 2005
इंतज़ार में
जो तुम्हारा सफ़र होता है
वो मेरे तीन दिन होते है।
आपका एक पहर होता है
घंटे हम गिन-गिन रोते हैं।
एक घंटे में आई-गई
बात हमें तड़पाती है,
पूरे साठ मिनटों की वो
कसक लिए हुए आती है।
एक मिनट के साठ पल
पलो के भी हज़ार टुकड़े
बीतते हैं ज्यों-ज्यों वे, मेरा
जाते हैं करार लूट के।
इंतज़ार में!
वो मेरे तीन दिन होते है।
आपका एक पहर होता है
घंटे हम गिन-गिन रोते हैं।
एक घंटे में आई-गई
बात हमें तड़पाती है,
पूरे साठ मिनटों की वो
कसक लिए हुए आती है।
एक मिनट के साठ पल
पलो के भी हज़ार टुकड़े
बीतते हैं ज्यों-ज्यों वे, मेरा
जाते हैं करार लूट के।
इंतज़ार में!
प्यास
जीवन भर की प्यास के बाद
मिला हो यदि गंगाजल और
अनुपम हो पर दो बूँदों से
ज़्यादा का न चलता हो दौर।
सौभाग्य है उसको पाना या
अच्छा था ना वो मिलना ही?
प्यासी ही मैं मर जाती, क्यों
जीने में तिल-तिल मरना भी?
मिला हो यदि गंगाजल और
अनुपम हो पर दो बूँदों से
ज़्यादा का न चलता हो दौर।
सौभाग्य है उसको पाना या
अच्छा था ना वो मिलना ही?
प्यासी ही मैं मर जाती, क्यों
जीने में तिल-तिल मरना भी?
Wednesday, March 16, 2005
शांति!
हलचल बंद-सी है
अभी मेरे दिल में।
शांति तो नहीं ये
तूफ़ान से पहले की?
धुंधले हैं सपने
खोए मेरे शब्द।
कुछ ज़्यादा बातें तो नहीं
हैं उनसे कहने की?
ये रोज़ की दूरियाँ
और दूरियों की आदत।
होगी भी कभी क़िस्मत
एक साथ रहने की?
उड़ने की इच्छा
पर कुतरे हुए पर।
छूट मिलेगी क्या
दरिया-संग बहने की?
ऐ दिल, मत धड़कना,
आ भी जाएँ वो तो।
स्वागत करना, शांति का
आवरण पहने ही।
अभी मेरे दिल में।
शांति तो नहीं ये
तूफ़ान से पहले की?
धुंधले हैं सपने
खोए मेरे शब्द।
कुछ ज़्यादा बातें तो नहीं
हैं उनसे कहने की?
ये रोज़ की दूरियाँ
और दूरियों की आदत।
होगी भी कभी क़िस्मत
एक साथ रहने की?
उड़ने की इच्छा
पर कुतरे हुए पर।
छूट मिलेगी क्या
दरिया-संग बहने की?
ऐ दिल, मत धड़कना,
आ भी जाएँ वो तो।
स्वागत करना, शांति का
आवरण पहने ही।
Sunday, March 13, 2005
बदलाव
दुनिया तो नहीं बदली अभी
ये नग़मे नहीं हो सकते नए।
बिखरे तो होंगे ये पहले भी
फ़िज़ाओं में, मैंने ही नहीं सुने।
जाने कैसे ना दिखे मुझे
ये फूल रंग हज़ार लिए?
कैसे आँखों को दे गई धोखा
ये ज़मीं सोलह श्रृंगार किए?
क्यों कभी ये हवाएँ सर्द
मन में तरंगें उठा न सकीं?
कैसे कभी चाँदनी सपनों से
बोझिल पलकें झुका ना सकीं?
क्यों कभी भींगी दूब पर चलते
क़दम मेरे लड़खड़ाए नहीं?
क्यों कभी मुझे गुदगुदाने वाले
सपने पास आए नहीं?
कैसे कभी मन नहीं मचला,
किसी को पास बुलाने को?
कहाँ कभी मुश्किलें झेलनी
पड़ीं ख़ुद को सुलाने को?
कहाँ कभी मन में ये आया
दम भर भीगूँ बारिश में?
क्यों न कभी मैं मचली
उस आसमान की ख़्वाहिश में?
लम्हे ना कभी भारी पड़े,
गला कभी ना भर आया।
कहाँ कभी कोई बोझ मेरे
छोटे से दिलपर आया?
कभी बिना रुके तो ऐसे
कलम भी मेरी चली नहीं
गीत एक इंसान की ख़ातिर
लिखने को मचली नहीं।
तारीफ़ कहाँ कभी किसी की
चमक मेरी आँखों में लाई?
कहाँ किसी की पुकार कभी
चहक मेरी बातों में लाई?
क्यों ना इन 'बेवक़ूफ़ी' भरी
बातों में मतलब दिखा?
क्यों ना कभी यादों की कलम से
दिल पर किसी का नाम लिखा?
बंधन की आज़ादी को कभी
क्यों ना मैंने पहचाना?
जो शीशे सा साफ़ है
वो राज़ ना मैंने क्यों जाना?
सच ही कहा जिसने भी कहा,
क़िस्मत से ज़्यादा, समय से पहले,
मिलता नहीं किसी को कुछ है,
कुछ भी कह दे, कुछ भी कर ले।
वरना आँखों के आगे पड़े
सपने को क्यों ना पहचाना?
दिल में ही जो गीत छिपा था
क्यों न उसे अपना माना?
ये नग़मे नहीं हो सकते नए।
बिखरे तो होंगे ये पहले भी
फ़िज़ाओं में, मैंने ही नहीं सुने।
जाने कैसे ना दिखे मुझे
ये फूल रंग हज़ार लिए?
कैसे आँखों को दे गई धोखा
ये ज़मीं सोलह श्रृंगार किए?
क्यों कभी ये हवाएँ सर्द
मन में तरंगें उठा न सकीं?
कैसे कभी चाँदनी सपनों से
बोझिल पलकें झुका ना सकीं?
क्यों कभी भींगी दूब पर चलते
क़दम मेरे लड़खड़ाए नहीं?
क्यों कभी मुझे गुदगुदाने वाले
सपने पास आए नहीं?
कैसे कभी मन नहीं मचला,
किसी को पास बुलाने को?
कहाँ कभी मुश्किलें झेलनी
पड़ीं ख़ुद को सुलाने को?
कहाँ कभी मन में ये आया
दम भर भीगूँ बारिश में?
क्यों न कभी मैं मचली
उस आसमान की ख़्वाहिश में?
लम्हे ना कभी भारी पड़े,
गला कभी ना भर आया।
कहाँ कभी कोई बोझ मेरे
छोटे से दिलपर आया?
कभी बिना रुके तो ऐसे
कलम भी मेरी चली नहीं
गीत एक इंसान की ख़ातिर
लिखने को मचली नहीं।
तारीफ़ कहाँ कभी किसी की
चमक मेरी आँखों में लाई?
कहाँ किसी की पुकार कभी
चहक मेरी बातों में लाई?
क्यों ना इन 'बेवक़ूफ़ी' भरी
बातों में मतलब दिखा?
क्यों ना कभी यादों की कलम से
दिल पर किसी का नाम लिखा?
बंधन की आज़ादी को कभी
क्यों ना मैंने पहचाना?
जो शीशे सा साफ़ है
वो राज़ ना मैंने क्यों जाना?
सच ही कहा जिसने भी कहा,
क़िस्मत से ज़्यादा, समय से पहले,
मिलता नहीं किसी को कुछ है,
कुछ भी कह दे, कुछ भी कर ले।
वरना आँखों के आगे पड़े
सपने को क्यों ना पहचाना?
दिल में ही जो गीत छिपा था
क्यों न उसे अपना माना?
Friday, March 11, 2005
दो शब्द तुम्हारे लिए
क्यों चैन नहीं आता मुझे
कुछ भी मेरे किए,
लिख ना छोड़ूँ जबतक
दो शब्द तुम्हारे लिए।
जब दुनिया हाथों से फिसल सी जाती है,
सब कुछ अचानक दूर हो जाता है।
तब किसका अहसास मुझे घेरता है,
कौन कानों में अनसुना गीत गुनगुनाता है?
मदहोशी का जाम-सा पिए,
तब लिखती हूँ मैं,
दो शब्द तुम्हारे लिए।
जब नींद नहीं आती है मुझको
पर सपनों से भारी हो पलकें
खुलने को तैयार न हों और
वे सपने चेहरे पर झलकें।
उनका बोझ उतारने के लिए
तब लिखती हूँ मैं
दो शब्द तुम्हारे लिए।
सोचती हूँ ये भी कभी-कभी,
क्या है इनमें? कुछ भी नहीं,
कितनों ने ही सुना-देखा ये
बात बिलकुल भी नई नहीं।
फिर भी अपने आप के लिए
लिख ही जाती हूँ मैं
दो शब्द तुम्हारे लिए।
कुछ भी मेरे किए,
लिख ना छोड़ूँ जबतक
दो शब्द तुम्हारे लिए।
जब दुनिया हाथों से फिसल सी जाती है,
सब कुछ अचानक दूर हो जाता है।
तब किसका अहसास मुझे घेरता है,
कौन कानों में अनसुना गीत गुनगुनाता है?
मदहोशी का जाम-सा पिए,
तब लिखती हूँ मैं,
दो शब्द तुम्हारे लिए।
जब नींद नहीं आती है मुझको
पर सपनों से भारी हो पलकें
खुलने को तैयार न हों और
वे सपने चेहरे पर झलकें।
उनका बोझ उतारने के लिए
तब लिखती हूँ मैं
दो शब्द तुम्हारे लिए।
सोचती हूँ ये भी कभी-कभी,
क्या है इनमें? कुछ भी नहीं,
कितनों ने ही सुना-देखा ये
बात बिलकुल भी नई नहीं।
फिर भी अपने आप के लिए
लिख ही जाती हूँ मैं
दो शब्द तुम्हारे लिए।
Thursday, March 10, 2005
यों दुनिया को भूलकर कब तक चलेंगे भला?
यों दुनिया को भूलकर कब तक चलेंगे भला?
ख़ामोश सपनों से, बेबस आहों से,
बेसब्र दिल से, पर मजबूर निग़ाहों से,
किसे कहो कभी कुछ है मिला?
यों दुनिया को भूलकर कब तक चलेंगे भला?
सफ़र ऐसा जिसकी कोई भी मंज़िल नहीं,
जो दिमाग़ कहता है जब मानता वो दिल नहीं,
कशमकश में ऐसी देर तक किसका जीवन चला?
यों दुनिया को भूलकर कब तक चलेंगे भला?
कभी सोचा है क्या होगा ग़र हम नहीं होंगे कल,
जो गीत लिखे मेरे लिए, उनसे किसी और को पाओगे छल?
पर अकेले भी कभी किसी से, जीवन का बोझ है टला?
यों दुनिया को भूलकर कब तक चलेंगे भला?
ख़ामोश सपनों से, बेबस आहों से,
बेसब्र दिल से, पर मजबूर निग़ाहों से,
किसे कहो कभी कुछ है मिला?
यों दुनिया को भूलकर कब तक चलेंगे भला?
सफ़र ऐसा जिसकी कोई भी मंज़िल नहीं,
जो दिमाग़ कहता है जब मानता वो दिल नहीं,
कशमकश में ऐसी देर तक किसका जीवन चला?
यों दुनिया को भूलकर कब तक चलेंगे भला?
कभी सोचा है क्या होगा ग़र हम नहीं होंगे कल,
जो गीत लिखे मेरे लिए, उनसे किसी और को पाओगे छल?
पर अकेले भी कभी किसी से, जीवन का बोझ है टला?
यों दुनिया को भूलकर कब तक चलेंगे भला?
Wednesday, March 09, 2005
कभी बताना मुझे
कभी बताना मुझे ।
कैसा लगा था जब
बात ये दिल में आई थी
कि शायद चाहते हो मुझे
और पहली बार मैं भाई थी।
कभी बताना मुझे ।
कि कितने खुश हुए थे
जब मैं भी मुसकाई थी।
तुम्हारी धड़कनों की धुन
मेरे दिल ने भी गाई थी।
कभी बताना मुझे ।
कि वो कैसी मुस्कान थी
जो तुम्हारे चेहरे पर आई थी,
जब दरवाज़े की घंटी मेरा
छोटा सा तोहफ़ा लाई थी।
कभी बताना मुझे ।
कि क्या कभी यों ही
अचानक तुम तड़पे थे,
बेचैनी-सी छाई थी और
दिल के अरमाँ भड़के थे।
कभी बताना मुझे ।
कि कैसा लगा था लिखना
वो पहला ख़त मुझको।
जब लगा कि उड़कर पहुँच जाए
वो मुझतक, कैसे सँभाला ख़ुद को।
कभी बताना मुझे ।
कि क्या अब भी तुम
सपने वैसे बुनते हो।
और कभी टूटने से भी
क्या उनके तुम डरते हो?
कभी बताना मुझे ।
कैसा लगा था जब
बात ये दिल में आई थी
कि शायद चाहते हो मुझे
और पहली बार मैं भाई थी।
कभी बताना मुझे ।
कि कितने खुश हुए थे
जब मैं भी मुसकाई थी।
तुम्हारी धड़कनों की धुन
मेरे दिल ने भी गाई थी।
कभी बताना मुझे ।
कि वो कैसी मुस्कान थी
जो तुम्हारे चेहरे पर आई थी,
जब दरवाज़े की घंटी मेरा
छोटा सा तोहफ़ा लाई थी।
कभी बताना मुझे ।
कि क्या कभी यों ही
अचानक तुम तड़पे थे,
बेचैनी-सी छाई थी और
दिल के अरमाँ भड़के थे।
कभी बताना मुझे ।
कि कैसा लगा था लिखना
वो पहला ख़त मुझको।
जब लगा कि उड़कर पहुँच जाए
वो मुझतक, कैसे सँभाला ख़ुद को।
कभी बताना मुझे ।
कि क्या अब भी तुम
सपने वैसे बुनते हो।
और कभी टूटने से भी
क्या उनके तुम डरते हो?
कभी बताना मुझे ।
Thursday, March 03, 2005
कब लिखोगे?
कब लिखोगे?
सुबह यही आया पहला ख़याल,
कैसे बताऊँ फिर क्या हुआ हाल!
कुछ और नहीं थी कर सकती
ख़ुद से ही मैं रही पूछती,
कब लिखोगे?
दिन चढ़ा, कई काम थे ज़रूरी
इस ख़याल से चाही थोड़ी दूरी
सब ठीक था, सब निबट गया,
पर दिल का एक कोना सोचता रहा,
कब लिखोगे?
धुंधलका छाया, शाम गहराई,
डूबते सूरज ने आवाज़ लगाई।
दम भर देख ले नज़ारे फिर मैं चला
सोचा जब दिन ग़ुज़रने का पता चला,
कब लिखोगे?
सुबह यही आया पहला ख़याल,
कैसे बताऊँ फिर क्या हुआ हाल!
कुछ और नहीं थी कर सकती
ख़ुद से ही मैं रही पूछती,
कब लिखोगे?
दिन चढ़ा, कई काम थे ज़रूरी
इस ख़याल से चाही थोड़ी दूरी
सब ठीक था, सब निबट गया,
पर दिल का एक कोना सोचता रहा,
कब लिखोगे?
धुंधलका छाया, शाम गहराई,
डूबते सूरज ने आवाज़ लगाई।
दम भर देख ले नज़ारे फिर मैं चला
सोचा जब दिन ग़ुज़रने का पता चला,
कब लिखोगे?
Wednesday, March 02, 2005
जब हम नहीं होते हैं
जब हम नहीं होते हैं।
इन सपनों से आप खेलते हैं क्या?
छिपा दर्द दिल का झेलते हैं क्या?
कभी बेचैनी में अपने
होश तो नहीं खोते हैं?
जब हम नहीं होते हैं।
दूरियाँ कहीं ये सारी आपको खलती तो नहीं?
मेरी अनकही आह कानों पर पड़ती तो नहीं?
गाते-गाते कभी छिपकर, दिल के
तार तो नहीं रोते हैं?
जब हम नहीं होते हैं।
दिन की चहल-पहल से दूर,
दिल के हाथों हो मजबूर
आँखों में हसरतों के सपने
भरे तो नहीं सोते हैं?
जब हम नहीं होते हैं।
इन सपनों से आप खेलते हैं क्या?
छिपा दर्द दिल का झेलते हैं क्या?
कभी बेचैनी में अपने
होश तो नहीं खोते हैं?
जब हम नहीं होते हैं।
दूरियाँ कहीं ये सारी आपको खलती तो नहीं?
मेरी अनकही आह कानों पर पड़ती तो नहीं?
गाते-गाते कभी छिपकर, दिल के
तार तो नहीं रोते हैं?
जब हम नहीं होते हैं।
दिन की चहल-पहल से दूर,
दिल के हाथों हो मजबूर
आँखों में हसरतों के सपने
भरे तो नहीं सोते हैं?
जब हम नहीं होते हैं।
Tuesday, March 01, 2005
इंतज़ार ही मेरी क़िस्मत है
इंतज़ार ही मेरी क़िस्मत है ।
जो इर्द-ग़िर्द है मंडराती,
पर पास नहीं फिर भी आती,
वो बहार ही मेरी हिम्मत है ।
इंतज़ार ही मेरी क़िस्मत है ।
जितनी राह हूँ देख चुकी,
उतनी ही देर है और सखी ।
ये मज़ार ही मेरी जन्नत है ।
इंतज़ार ही मेरी क़िस्मत है ।
पल भर छूकर निकल जाना,
पाने की कोशिश छल जाना,
ऐ बयार, ये तेरी फ़ितरत है ।
इंतज़ार ही मेरी क़िस्मत है ।
जो इर्द-ग़िर्द है मंडराती,
पर पास नहीं फिर भी आती,
वो बहार ही मेरी हिम्मत है ।
इंतज़ार ही मेरी क़िस्मत है ।
जितनी राह हूँ देख चुकी,
उतनी ही देर है और सखी ।
ये मज़ार ही मेरी जन्नत है ।
इंतज़ार ही मेरी क़िस्मत है ।
पल भर छूकर निकल जाना,
पाने की कोशिश छल जाना,
ऐ बयार, ये तेरी फ़ितरत है ।
इंतज़ार ही मेरी क़िस्मत है ।
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