वो गीत कभी मैं लिख पाऊँ
जो उनके दिल को छू जाए।
सुनकर मेरे मन की तान,
मानो चमका हो आसमान,
वो चाँद गगन में यूँ छाए।
वो गीत कभी मैं लिख पाऊँ
जो उनके दिल को छू जाए।
जो सोच सिहर उठती हूँ मैं,
और चार प्रहर जगती हूँ मैं,
वो बात ना उनको क्यूँ भाए?
वो गीत कभी मैं लिख पाऊँ
जो उनके दिल को छू जाए।
बेचैन बना दे यों उनको,
चैन ना हो फिर तन-मन को
और देखें तारे मुँह बाए।
वो गीत कभी मैं लिख पाऊँ
जो उनके दिल को छू जाए।
Monday, February 28, 2005
Friday, February 25, 2005
आया जो पहला ख़त उनका
आया जो पहला ख़त उनका।
ज़मीं से उठाकर मुझे
आसमां पर बिठा गया।
थोड़ा जो बचा था मेरे पास
वो चैन भी चुरा गया।
ये बात उन्हें बता देना
पर चैन चुराना यों मत उनका
आया जो पहला ख़त उनका।
भीड़ में बैठे ही बैठे
जो कहीं खो गई मैं।
बिना किसी वज़ह के
पागल सी जो हो गई मैं।
तो अजूबा क्या था इसमें
दोष इसे कहना मत मन का।
आया जो पहला ख़त उनका।
ज़मीं से उठाकर मुझे
आसमां पर बिठा गया।
थोड़ा जो बचा था मेरे पास
वो चैन भी चुरा गया।
ये बात उन्हें बता देना
पर चैन चुराना यों मत उनका
आया जो पहला ख़त उनका।
भीड़ में बैठे ही बैठे
जो कहीं खो गई मैं।
बिना किसी वज़ह के
पागल सी जो हो गई मैं।
तो अजूबा क्या था इसमें
दोष इसे कहना मत मन का।
आया जो पहला ख़त उनका।
Saturday, February 19, 2005
क्या सज़ा दूँ
क्या सज़ा दूँ जो तुम्हारी हो,
पर वो नहीं मेरी हो?
कैसे समझाऊँ तुम्हें
दर्द इंतज़ार का?
क्यों लेते हो इम्तिहान
यों मेरे प्यार का?
क्या करूँ कि फिर से
कभी ना ये देरी हो?
क्या सज़ा दूँ जो तुम्हारी हो,
पर वो नहीं मेरी हो?
ख़ुद को खो चुकी मैं
जाने कब तुम्हारे आगे।
अब मेरे वश में नहीं ग़र
रातों में आँखें मेरी जागें।
क्या करूँ कि एक बार
फिर नींद मेरी चेरी हो?
क्या सज़ा दूँ जो तुम्हारी हो,
पर वो नहीं मेरी हो?
पर वो नहीं मेरी हो?
कैसे समझाऊँ तुम्हें
दर्द इंतज़ार का?
क्यों लेते हो इम्तिहान
यों मेरे प्यार का?
क्या करूँ कि फिर से
कभी ना ये देरी हो?
क्या सज़ा दूँ जो तुम्हारी हो,
पर वो नहीं मेरी हो?
ख़ुद को खो चुकी मैं
जाने कब तुम्हारे आगे।
अब मेरे वश में नहीं ग़र
रातों में आँखें मेरी जागें।
क्या करूँ कि एक बार
फिर नींद मेरी चेरी हो?
क्या सज़ा दूँ जो तुम्हारी हो,
पर वो नहीं मेरी हो?
Friday, February 11, 2005
क्यों भला सहती हूँ मैं
इतना सताते हो
और क्यों भला सहती हूँ मैं?
तरसा देते हो रोज़ दो शब्दों के लिए,
इतना नहीं तड़पी मैं कभी किसी के कुछ किए।
फिर भी आस दिलाते हो
तो क्यों बैठी रहती हूँ मैं?
इतना सताते हो
और क्यों भला सहती हूँ मैं?
नींदें उड़ाकर चैन से सो जाते हो,
एक झलक दिखाकर कहीं खो जाते हो।
फिर भी जब सपने दिखाते हो
तो क्यों उनमें बहती हूँ मैं?
इतना सताते हो
और क्यों भला सहती हूँ मैं?
परेशान करते हो, हँस के जी जलाते हो,
और बताओ भला फिर भी क्यों भाते हो?
शिक़ायतें कभी ख़ुद भी सुझाते हो
तो भी कहाँ कहती हूँ मैं?
इतना सताते हो
और क्यों भला सहती हूँ मैं?
और क्यों भला सहती हूँ मैं?
तरसा देते हो रोज़ दो शब्दों के लिए,
इतना नहीं तड़पी मैं कभी किसी के कुछ किए।
फिर भी आस दिलाते हो
तो क्यों बैठी रहती हूँ मैं?
इतना सताते हो
और क्यों भला सहती हूँ मैं?
नींदें उड़ाकर चैन से सो जाते हो,
एक झलक दिखाकर कहीं खो जाते हो।
फिर भी जब सपने दिखाते हो
तो क्यों उनमें बहती हूँ मैं?
इतना सताते हो
और क्यों भला सहती हूँ मैं?
परेशान करते हो, हँस के जी जलाते हो,
और बताओ भला फिर भी क्यों भाते हो?
शिक़ायतें कभी ख़ुद भी सुझाते हो
तो भी कहाँ कहती हूँ मैं?
इतना सताते हो
और क्यों भला सहती हूँ मैं?
Saturday, February 05, 2005
चाहती तो नहीं
चाहती तो नहीं
कि मेरी यादें तुम्हें परेशान करें,
मेरी बातें, मेरा चेहरा हैरान करें।
पर जब ये कहते हो
कि तुम मुझे याद करते हो,
तो अच्छा तो लगता है!
चाहती तो नहीं
कि तुम मेरे लिए रुको,
या कभी मेरे लिए झुको।
पर जब ये कहते हो
कि चलते हुए कभी ठिठकते हो,
तो अच्छा तो लगता है!
चाहती तो नहीं
कि तुम्हें किसी बंधन में बाँधू,
प्रीत को बोझ बनाकर तुमपर लादूँ।
पर जब ये कहते हो
कि बिन बाँधे ही बँधते हो
तो अच्छा तो लगता है!
कि मेरी यादें तुम्हें परेशान करें,
मेरी बातें, मेरा चेहरा हैरान करें।
पर जब ये कहते हो
कि तुम मुझे याद करते हो,
तो अच्छा तो लगता है!
चाहती तो नहीं
कि तुम मेरे लिए रुको,
या कभी मेरे लिए झुको।
पर जब ये कहते हो
कि चलते हुए कभी ठिठकते हो,
तो अच्छा तो लगता है!
चाहती तो नहीं
कि तुम्हें किसी बंधन में बाँधू,
प्रीत को बोझ बनाकर तुमपर लादूँ।
पर जब ये कहते हो
कि बिन बाँधे ही बँधते हो
तो अच्छा तो लगता है!
Friday, February 04, 2005
देखना, यों अकेले हो मत जाना
जब चहल-पहल होगी सब ओर,
कुछ बातें होंगी और कुछ शोर,
उस समय मेरी याद में खो मत जाना ।
देखना, यों अकेले हो मत जाना ।
यथार्थ की माँग पर चलना ज़रूरी हो,
तुम्हारी मंज़िल और मेरे बीच बड़ी दूरी हो,
तब आँखों में मेरे सपने भरे सो मत जाना ।
देखना, यों अकेले हो मत जाना ।
जब मेहनत पर सफलताएँ मिलने लगें,
होंठों पर एक मुस्कान खिलने लगे,
तब दिल में मुझे याद कर रो मत जाना ।
देखना, यों अकेले हो मत जाना ।
कुछ बातें होंगी और कुछ शोर,
उस समय मेरी याद में खो मत जाना ।
देखना, यों अकेले हो मत जाना ।
यथार्थ की माँग पर चलना ज़रूरी हो,
तुम्हारी मंज़िल और मेरे बीच बड़ी दूरी हो,
तब आँखों में मेरे सपने भरे सो मत जाना ।
देखना, यों अकेले हो मत जाना ।
जब मेहनत पर सफलताएँ मिलने लगें,
होंठों पर एक मुस्कान खिलने लगे,
तब दिल में मुझे याद कर रो मत जाना ।
देखना, यों अकेले हो मत जाना ।
Thursday, February 03, 2005
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।
कह ना पाई जो जुबानी लिखूँगी ।
जब लमहे ग़ुज़ारे तनहा बैठै-बैठे,
तब आई यादों की निशानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।
राजा था सपनों में रानी थी बैठी,
खो गए कहाँ राजा रानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।
बाहर था सूखा और हवा गर्म थी,
आँखों से बरसा जो पानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।
नज़ारों को तकते-ही-तकते वो कैसे
खिंच गई थी चादर धानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।
हसरतें दबी ऐसी, जो फिर ना निकलीं
दुनिया ने कैसे ना जानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।
सुलझे दिमाग़ और मजबूत दिल ने
क्यों तक़दीर से हार मानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।
कह ना पाई जो जुबानी लिखूँगी ।
जब लमहे ग़ुज़ारे तनहा बैठै-बैठे,
तब आई यादों की निशानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।
राजा था सपनों में रानी थी बैठी,
खो गए कहाँ राजा रानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।
बाहर था सूखा और हवा गर्म थी,
आँखों से बरसा जो पानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।
नज़ारों को तकते-ही-तकते वो कैसे
खिंच गई थी चादर धानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।
हसरतें दबी ऐसी, जो फिर ना निकलीं
दुनिया ने कैसे ना जानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।
सुलझे दिमाग़ और मजबूत दिल ने
क्यों तक़दीर से हार मानी लिखूँगी ।
किसी दिन मैं एक कहानी लिखूँगी ।
Wednesday, February 02, 2005
ज़िन्दग़ी मुझसे भागना नहीं
ज़िन्दग़ी मुझसे भागना नहीं!
अबतक बहुत कुछ तूने दिया है,
तेरा मधुर रस मैंने पिया है ।
फिर भी आज मुझे स्वप्न सा लगता है
इस स्वप्न से मुझे जागना नहीं ।
ज़िन्दग़ी मुझसे भागना नहीं!
नहीं चाहिए मुझे गाढ़े गुलाल
पर छीनना न मुझसे हलका रंग लाल ।
एक धीमी मधुर गुनगुन काफी होगी,
ना सुनूँ मैं फाग ना सही ।
ज़िन्दग़ी मुझसे भागना नहीं!
चुपके से आ जाना कोई क्यों जाने,
मैं तो खुश रहूँगी चाहे कोई ना माने ।
बुलबुल न समझे, मंजर न जानें
तू आ जाना चाहे बोले काग ना सखी ।
ज़िन्दग़ी मुझसे भागना नहीं!
अबतक बहुत कुछ तूने दिया है,
तेरा मधुर रस मैंने पिया है ।
फिर भी आज मुझे स्वप्न सा लगता है
इस स्वप्न से मुझे जागना नहीं ।
ज़िन्दग़ी मुझसे भागना नहीं!
नहीं चाहिए मुझे गाढ़े गुलाल
पर छीनना न मुझसे हलका रंग लाल ।
एक धीमी मधुर गुनगुन काफी होगी,
ना सुनूँ मैं फाग ना सही ।
ज़िन्दग़ी मुझसे भागना नहीं!
चुपके से आ जाना कोई क्यों जाने,
मैं तो खुश रहूँगी चाहे कोई ना माने ।
बुलबुल न समझे, मंजर न जानें
तू आ जाना चाहे बोले काग ना सखी ।
ज़िन्दग़ी मुझसे भागना नहीं!
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