Thursday, April 28, 2005

ईर्ष्या

"ईर्ष्या नही होती क्या मुझे?"
यही पूछा था ना तुमने ?

होती है मुझे ईर्ष्या !!

उन हवाओं से,
जो तुम्हारे बाल सहलाती हैं,
उन खुशबुओं से,
जो तुम्हारे करीब आती हैं ।

उन पत्तों से,
जो डाली से टूट कर तुम्हारे कंधों का सहारा ले सकते हैं,
उन दृश्यों से,
जो तुम्हारी जलती आंखों को कुछ सुकून दे सकते हैं ।

उस पानी से,
जो तुम्हे भिगो कर दिन भर की थकान उतार पाता है,
उस पक्षी से,
जो तुम्हारी मुंडेर पर बैठ, दो पल ही सही, एक गीत गा जाता है।

क्योंकि इनमे से हर काम मे मेरा हिस्सा हो सकता है !
और इनके आगे इंसानों से कौन भला कभी जलता है?

Friday, April 22, 2005

जो ऐसा हो तो

कभी जब पास हो कर भी दूरियां मुझसे लगें बडने,
मेरा साथ प्यास बुझाने की बजाये खुद ही लगे जलने ,
तब याद कर लेना आज की दूरियों का बेपनाह दर्द ।
शायद तब साथ मेरा फ़िर से भाने लगे,
और नज़दीक हम दोनों फ़िर से आने लगें ।

कभी अपनी ज़िंदगी में जब ऊब सी आने लगे,
जब रोज़ की जाने वाली बातें उकताने लगें,
तब एक बार पलट लेना आज के सपनों की किताब ।
शायद इन मे से कुछ करने को हम फ़िर ललचाने लगें,
और ये उत्सुकता फ़िर से जीवन में आने लगे ।

काल यदि तुमसे हमको कभी यों ही ले जायें छीन,
और सुषमा जीवन की सारी लगने लगे मानो हीन,
दूरियों मे पनपे प्यार की याद तब तुम कर लेना ।
शायद निराशा का भाव तब मन से तुम्हारे जाने लगे,
और क्षीण शरीर भी जोर से जवां दिलों का गीत गाने लगे ।

Sunday, April 17, 2005

यूं दूरियां मिटती जाती हैं

यूं दूरियां मिटती जाती हैं ।

डर था आंख मिलाने मे भी,
हिचक हाथ बडाने मे भी ।
कब मिली नज़र, कब थमा हाथ,
बात याद नही अब आती है ।

यूं दूरियां मिटती जाती हैं ।

कब कंधे पर रक्खा सर,
और आंखों मे कई सपने भर,
जिन बांहों ने कसा मुझे,
कितनी वो अभी भाती हैं।

यूं दूरियां मिटती जाती हैं ।

आम सी बात कहने मे भी,
हिचक भला कैसी थी होती?
कैसे दिल के दर्द, भय और
खुशियां भी यूं खुल जाती हैं?

यूं दूरियां मिटती जाती हैं ।

पास रह भी दूर थे वो
ख्वाब वो मजबूर थे जो !
दूरियों से भी अब कैसे,
तान उनकी आ जाती है?

यूं दूरियां मिटती जाती हैं ।

Wednesday, April 13, 2005

ना तेरा है ना मेरा है

ना तेरा है ना मेरा है, अब दर्द हमारा है साथी ।

सपने इस दिल के हरदम,
छोटे छोटे से होते थे ।
कुछ पाने की इच्छा से पहले,
डरती थी उसके खोने से ।

तुम मिले तो मेरे सपनों को,
बौनापन पता चला अपना ।
और संग तुम्हारे मिल कर मैंने,
देखा एक बडा सपना ।

ये वो ही है जिसे अभी तुम,
अपना सपना कहते हो ।
अब सिर्फ़ तुम्हारा रहा नही,
वो मर्ज हमारा है साथी ।

ना तेरा है ना मेरा है, अब दर्द हमारा है साथी ।

जो तान अभी छेडी तुमने,
प्रेरणा मेरी भी तो थी ।
गीत जो लिखे कभी मैंने,
समझा तो उनको तुमने भी ।

बसंत जो आया है इस बार,
लाये हम तुम मिल कर ही ।
वरना सुख कौन सा पाते थे,
फूल सारे खिल कर भी ।

अकेले मे चाहे तुम गाओ,
तन्हा ही मैं गुनगुनाऊं ।
रहा कहां अब तेरा मेरा,
तर्ज हमारा है साथी ।

ना तेरा है ना मेरा है, अब दर्द हमारा है साथी ।

Saturday, April 02, 2005

अंत या शुरुआत?

अंत है या शुरुआत सफ़र की?
आज तो ये बात नहीं जान पड़ती।

हलचल-सी तो है कहीं पर
जाने ये तूफ़ान बनेगा?
या बस यहीं खतम हो कर
कुचला हुआ अरमान बनेगा?

रहूँगी कल मैं जीती या मरती?

अंत है या शुरुआत सफ़र की?
आज तो ये बात नहीं जान पड़ती।

जिन्होंने साथ दिया अब तक
क्या रोड़े बनेंगे राह में?
और उन्हें पूजने का कर्तव्य
मुझे बढ़ने न देगा अपनी चाह में?

सब ठीक है या होगी कोई बात डर की?

अंत है या शुरुआत सफ़र की?
आज तो ये बात नहीं जान पड़ती।

और अगर सच में कहीं ये
साबित हुआ अंत सफ़र का,
क्या करेंगे, कहाँ जाएँगे हम -
रास्ता देखेंगे भी तो किस दर का?

क्या कुचली जाएगी उड़ान पर की?

अंत है या शुरुआत सफ़र की?
आज तो ये बात नहीं जान पड़ती।