Sunday, January 30, 2005

जब इस बार

जब इस बार मिलें हम तुम, मैं खुद से ही डर जाऊँ तो?
जड़ हो जाऊँ क़दम अपने मैं आगे ना कर पाऊँ तो?

बढ़कर थाम तो लोगे मुझको, बाहों में भर लोगे क्या?
साँसें रुकने लगें तब भी जीवन मेरा नया कर दोमे क्या?

और कहीं जो टूट मैं जाऊँ, आँसू रुकने पाएँ ना मेरे,
बिना उन्हें हाथों से पोछे, सीने में भर लोगे क्या?

नई-नई सी परिस्थिति में मैं थोड़ा घबराऊँ तो?
बोल नहीं पाऊँ मैं कुछ भी, कुछ कर भी नहीं मैं पाऊँ तो?

झुक भी जाएँ आँखें पर उनकी भाषा पढ़ लोगे क्या?
मेरे मन के आँगन को फिर भी प्रेम से भर दोगे क्या?

दो पल में जीवन जी लूँ सारा ऐसा कुछ कर कर दोगे क्या?
और कर्तव्य बुलाए जब तो, मुझे छोड़ चल दोगे क्या?

अनिवार्य होगा बिछड़ना फिर से, जानकर भी रोक नहीं मैं पाऊँ तो?
बुरा तो नहीं मानोगे यदि एक बार तुम्हारे बाद दो बूँदें मैं बरसाऊँ तो?

Saturday, January 15, 2005

अधूरी देन

(एक संग्रहालय [museum] में एक मध्यकालीन अधूरी प्रेम-कहानी की पांडुलिपि देखकर ये कविता मन में आई।)

कौन था रे तू?
क्या व्यथा थी तेरी?
जो यों तूने लिख छोड़ी,
एक प्रेम-कहानी अधूरी।

क्या कुर्बान हो गया था तू
प्रेम या कर्त्तव्य की राह पर?
क्या पूरा कर पाने से पहले ही
मिट चुका था अपनी किसी चाह पर?

क्या तेरा प्रेम एकतरफ़ा था?
क्या दिलो के तार तुम्हारे मिले नहीं?
जो कल्पना के कमल तूने खिलाए थे,
क्या वे दूसरी ओर कभी खिले नहीं?

या फ़िर थी कोई मजबूरी
जिसकी वज़ह से तुम्हारा प्रेम
आ नहीं पाया विश्व के सामने, पर
दे गया इतिहास को ये अधूरी देन।

मैं कल रात नहीं सोई

मैं कल रात नहीं सोई!

दिल तड़प रहा था
तुम्हें पास बुलाने को
आँखें तरस रही थीं
एक झलक बस पाने को ।
व्यथा बड़ी थी, पर तुम्हारी
ख़ातिर ही मैं नहीं रोई ।

मैं कल रात नहीं सोई!

मुड़कर देखने का जी था,
पर फिर भी मैं मुड़ी नहीं ।
थक कर रुक जाने की इच्छा
होने पर भी रुकी नहीं ।
दुखी न होना, दोष न देना,
मैंने बात नहीं खोई ।

मैं कल रात नहीं सोई!

सुबह पूछा किसी ने तो
मैंने बना दिए बहाने,
मेरे दिल की धड़कन का
कोई अर्थ क्योंकर जाने?
जीवन में तुम्हें बसाने की तड़प में,
सच, मेरा हाथ नहीं कोई ।

मैं कल रात नहीं सोई!

आज अगर तुम यहाँ होते

आज अगर तुम यहाँ होते ।

नई जगह और नए नज़ारों
व्यस्त सड़क और भरे बाज़ारों
में मेरे चलने के अरमाँ
उत्साह न सहसा यों खोते ।

आज अगर तुम यहाँ होते ।

सूनी गलियों, शांत इशारों,
में पनपने वाले मेरे विचारों,
को महसूस बेबसी ना होती
और वे यों अकेले ना रोते ।

आज अगर तुम यहाँ होते ।

लोगों से यों घिरी हुई
चहल-पहल में मिली हुई,
मैं जीवन से भागना नहीं चाहती
इसके बीज अगर हम साथ बोते

आज अगर तुम यहाँ होते ।