इंतज़ार हो ऐसा दिन तो
कम-से-कम मैं गिनने पाऊँ
ऐसा हो आओ ना जबतक
तब तक मैं बस रोती जाऊँ।
दिन हों उसमें बस इतने कि
जग भी मुझको छोड़ अकेला
बढ़ जाए वो क़दम-दो-क़दम
जाए ना पर मुझे ढकेला।
इंतज़ार जो होता कुछ दिन
उसको मैं भी गले लगाती
उसे प्यार का भाग बताकर
मीठे दर्द के साथ बिठाती।
सपने बुनती मिलन के दिन के
घर को अपने खूब सजाती,
ज्यों-ज्यों दिन आते जाते मैं
भीतर-बाहर दौड़ लगाती।
क्या करूँ उस इंतज़ार का
गिनती जिसमें छूट है जाती,
सूख जाते आँसू जिसमें
दुनिया मुझको छोड़ न पाती।
नहीं दर्द रहता है मीठा,
नहीं तड़प हलकी रहती है,
पागलपन चढ़ता जाता है,
बेचैनी बढ़ती रहती है।
सपने देख-देख कर मन भी
और नहीं फिर बुन पाता है,
कड़वाहट-सी भर जाती है
जग नहीं बिलकुल भाता है।
और शब्द भी थक जाते हैं,
कविताएँ हो चुप जाती हैं,
बार-बार बस वही बोलकर
कलम भी आखिर रुक जाती है।
ये लम्बा जो इंतज़ार है
मैं नहीं सह पाती इसको,
कहाँ रोऊँ, और क्या करूँ मैं,
जाकर दर्द सुनाऊँ किसको?