अपने सच के आगे तुम्हारे
सच को अपना लूँगी जिस दिन
उस दिन समझूँगी प्यार किया।
इंतज़ार कर पाऊँ जिस दिन
शिकायत के एक लफ़्ज़ बिन
उस दिन समझूँगी प्यार किया।
छोड़ दूँ तड़पना जिस दिन से मैं
गलतियाँ तुम्हारी गिन-गिन
उस दिन समझूँगी प्यार किया।
Thursday, August 25, 2005
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2 comments:
ऊङती चिङिया की कविताएँ पङ कर तो दिन बन जाता है. अकसर लिखते रहिए. यह कविता परिपक्व प्रेम की परिभाषा मानी जा सकती है.
बहुत खूब, क्या बात है!
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