कुछ हर बार बदल जाता है।
बरसों का है इंतज़ार और
पल भर की ही है बहार
पर उस पल भर में ही कैसे
परदा एक और खुल जाता है।
कुछ हर बार बदल जाता है।
लगता है कि बहुत हुआ
कुछ करने को अब नहीं बचा
पर जब भी मिलते हो फिर से
बंधन एक और खुल जाता है।
कुछ हर बार बदल जाता है।
पहली बार पास आए थे
कैसे हम तब घबराए थे
जब भी अब वापस आते हो
क़दम एक और बढ़ जाता है।
कुछ हर बार बदल जाता है।
Thursday, August 18, 2005
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2 comments:
bahut sundar hai, kavitaa aur satya bhii.
wow ! that was mind blowing.
udte panchi tum to itna ooncha ud gaye kavitaon ki duniya main ki sidhe dil ki gehrai main utar gaye.
Wah ustad wah kya likha hai.
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