बहुत है सिमटी फिर भी दुनिया नहीं हुई छोटी इतनी
पार सात समंदर रहकर भी ना कोई बने विरही।
आती हैं तस्वीरें, बोली भी तो मैं सुन लेती हूँ,
पर भला पूरी हो सकती है उस छुअन की कमी कभी?
जीवन अलग तेरा-मेरा, सुख-दुःख सब अपने-अपने
पहले बाँटू इन सबको, फिर कैसे संग देखूँ सपने?
विरह की थी जिसे ज़रूरत, बड़ा ही कच्चा प्रेम था उसका,
पास भी होकर नहीं छूटते, प्रिय, मधुर सपने अपने।
2 comments:
म़ै तो जानता ही नह़ी था कि हिन्दी म़े भी blogs होते ह़ै. आपकी कविताऐं लाीजवाब हैं. सभी को पढकर बडा मज़ा आया. लिखते रहिए.
namaste,
aap kaa naam to pata nahin hai, per jo bhi hain aap aachaa likhti hain.
main har roz aap ka blog dhekhtaa hun, iss umeed mein ki kuch naya likheingee aap. august 7 ke baad kuch bhi nahin likhaa aapne.
aap ki sari poems padd chukaa hun. reason... am writing... each one of these seems to me my stories, my feelings.
chaliye aisaa hi acchaa achaa likhti rahiye.
Ripudaman Pachauri
pachauriripu@yahoo.com
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