जीवन चला गया मैं पल भर बैठ नहीं पाई
जाते हुए भी आखिरी वह भेंट नहीं पाई।
छुआ अभी था होठों को कि प्याला छीन लिया
पर स्वाद चढ़ा जो होठों पर समेट नहीं पाई।
अभी थकान चढ़ी हुई थी बाग को सिंचवाने की
लुट गया वो मैं पल भर भी लेट नहीं पाई।
है मेरा भी प्यार कहीं पर, फिर भी जिसमें
चाहत उगती, देख कभी वो खेत नहीं पाई।
1 comment:
Sundar kavita.
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