Saturday, August 26, 2006

कारण क्या मेरे रोने का


कारण क्या मेरे रोने का
क्या डर है तुमको खोने का?


प्यार हमारा सह न सकेगा
इतने लम्बे इस विरह को?
परेशान क्या इससे होती,
क्या भय लगता है ये मुझको?


नहीं क्षणिक भी ऐसी कोई
चिंता मुझको खाती है
होगा कुछ बुरा विरह से
नहीं ये बात सताती है।


और अगर कुछ होना हो तो
रोना क्या उसके लिए?
नहीं चाहिए वह प्रेम जो
टूटे कुछ विरह के किए।


नहीं ये कल की सोच नहीं है
आज जो मुझे रुलाती है।
नहीं भविष्य की कोई कल्पना
है जो मुझे डराती है।


आज का हर एक लम्हा लेकिन
प्रश्न ये मुझसे करता है,
"क्यों ये विरह? बताओ मुझको"
कह-कह मानो जलता है।


सारी गलियाँ जो घूमे थे
साथ हम दोनों मिलकर
"आज अकेली क्यों हो आई"
पूछती हैं चौंक कर।


दर्द वो सारे जिनको तुमने
बस छूकर ही दबा दिया था,
हँसते हैं अब मेरे ऊपर,
कभी महत्व न जिन्हें दिया था।


ये शाम मेरे पास आकर
रोज़ शिकायत करती है,
"तनहाई क्यों?" पूछती हुई
आहें हरदम भरती है।


दे तो देती उत्तर उनको
लेकिन उससे क्या होता है?
चुप हो जाते हैं वो पर
विश्वास कहाँ उनको होता है,


कि होगा कुछ अच्छा इससे
नहीं विरह अखरेगा कल को,
नहीं कभी होगा पछतावा
क्यों खोया हमने इस पल को।


खैर चलो वो चुप तो होते
क्या करूँ पर दिल का अपने
चुप नहीं होता, नहीं पोछता
आँसू जब से टूटे सपने।


जब इन सारे सवालों से मैं
ख़ुद छिदती-सी जाती हूँ।
नहीं कुछ और सूझता तब
बस आँसू हैं जो बहाती हूँ।

Sunday, August 06, 2006

प्रारंभ विरह का


बहुत है सिमटी फिर भी दुनिया नहीं हुई छोटी इतनी
पार सात समंदर रहकर भी ना कोई बने विरही।


आती हैं तस्वीरें, बोली भी तो मैं सुन लेती हूँ,
पर भला पूरी हो सकती है उस छुअन की कमी कभी?


जीवन अलग तेरा-मेरा, सुख-दुःख सब अपने-अपने
पहले बाँटू इन सबको, फिर कैसे संग देखूँ सपने?


विरह की थी जिसे ज़रूरत, बड़ा ही कच्चा प्रेम था उसका,
पास भी होकर नहीं छूटते, प्रिय, मधुर सपने अपने।

Friday, August 04, 2006

जीवन चला गया मैं पल भर बैठ नहीं पाई


जीवन चला गया मैं पल भर बैठ नहीं पाई
जाते हुए भी आखिरी वह भेंट नहीं पाई।


छुआ अभी था होठों को कि प्याला छीन लिया
पर स्वाद चढ़ा जो होठों पर समेट नहीं पाई।


अभी थकान चढ़ी हुई थी बाग को सिंचवाने की
लुट गया वो मैं पल भर भी लेट नहीं पाई।


है मेरा भी प्यार कहीं पर, फिर भी जिसमें
चाहत उगती, देख कभी वो खेत नहीं पाई।