Friday, April 04, 2008

अकेलापन अब सताने लगा है

अकेलापन अब सताने लगा है,
आ जाओ ग़म जाँ खाने लगा है।

काटे बरस इतने कैसे जाने मैंने
रहा-सहा साहस अब जाने लगा है।

थक गए कंधे, नीरस सफ़र है,
हमदम को दिल अब बुलाने लगा है।

हाथों में डाले चलते हैं जो हाथ अब,
दिल उनसा रहने को छटपटाने लगा है।

Saturday, March 15, 2008

क्या वो आज हमें पुकारेंगे नहीं?

क्या वो आज हमें पुकारेंगे नहीं?
हमने तो बढ़ाए क़दम, वो अब
क्या दूरियों को नकारेंगे नहीं?


क्यों आदत सी हो गई है उनकी हमें,
कभी जो रूठ कर चले गए, क्या हम
ज़िंदग़ी उनके बिना गुज़ारेंगे नहीं?


इस अंधेरी रात में, सूनी-सी राह में
कहीं गिर जो पड़े फिसल कर हम
क्या वो हमें आकर सँभालेंगे नहीं?

Saturday, September 22, 2007

क्यों बातें कर के जी नहीं भरता?


क्यों बातें कर के जी नहीं भरता?


सुना दीं सारी ख़बरें जहान की
सुन लीं बाकी ख़बरे जहान की
क्यों फिर भी ये पूरा नहीं पड़ता?


क्यों बातें कर के जी नहीं भरता?


बता दिया जितना बता सकती थी
लफ़्ज़ों में जो बात समा सकती थी
क्यों फिर भी चुप रहने का मन नहीं करता?


क्यों बातें कर के जी नहीं भरता?


लगता तो नहीं कुछ और कह सकते हो
क्या चुप्पी फ़िर भी सह सकते हो?
मेरा तो सुन-सुन कर दिल नहीं भरता।


क्यों बातें कर के जी नहीं भरता?


Sunday, April 29, 2007

डर


डर इसका नहीं है कि मुझे भूल जाओगे
डरती हूँ न जाओ इन वादियों को भूल
रखी हैं जिन्होंने सहेज कर यादें हमारी
और न पड़ने देंगी समय की उन पर धूल।


कहीं वो गीली रेत अजनबी न लगने लगे
हमारे पैरों के निशान हैं जिनपर पास-पास
कहीं वो कंकड़ पैरों में न चुभने लगें
फेंके थे पानी में जो हमने साथ-साथ

वो अक्षर न भूल जाएँ तुम्हें
जिनसे हमने नाम लिखे थे
तूफ़ान न हो जाएँ बेगाने
जो हमने मिल थाम रखे थे।


इन सबके ही बीच में मैंने
कभी तो तुमके पाया था
और यहीं थे सब के सब
जब नींद और चैन गँवाया था।


थोड़े-थोड़े बाँट रखे हैं
इन्होने सब अनुभव अपने
ये साक्षी उनके, देखे हैं
जो हमने मिलकर के सपने।


हाँ, ये हो सकता नहीं
कि कभी कोई कुछ ना भूले,
बस इतनी सी चाहत है
जब भूलें मिलकर ही भूलें।


याद जगे मेरी इन सब से
और तुम्हें ना याद आए
जब हम फिर हों साथ यहाँ
यही है मुझको डर खाए।

Sunday, October 08, 2006

लम्बा इंतज़ार


इंतज़ार हो ऐसा दिन तो
कम-से-कम मैं गिनने पाऊँ
ऐसा हो आओ ना जबतक
तब तक मैं बस रोती जाऊँ।


दिन हों उसमें बस इतने कि
जग भी मुझको छोड़ अकेला
बढ़ जाए वो क़दम-दो-क़दम
जाए ना पर मुझे ढकेला।


इंतज़ार जो होता कुछ दिन
उसको मैं भी गले लगाती
उसे प्यार का भाग बताकर
मीठे दर्द के साथ बिठाती।


सपने बुनती मिलन के दिन के
घर को अपने खूब सजाती,
ज्यों-ज्यों दिन आते जाते मैं
भीतर-बाहर दौड़ लगाती।


क्या करूँ उस इंतज़ार का
गिनती जिसमें छूट है जाती,
सूख जाते आँसू जिसमें
दुनिया मुझको छोड़ न पाती।


नहीं दर्द रहता है मीठा,
नहीं तड़प हलकी रहती है,
पागलपन चढ़ता जाता है,
बेचैनी बढ़ती रहती है।


सपने देख-देख कर मन भी
और नहीं फिर बुन पाता है,
कड़वाहट-सी भर जाती है
जग नहीं बिलकुल भाता है।


और शब्द भी थक जाते हैं,
कविताएँ हो चुप जाती हैं,
बार-बार बस वही बोलकर
कलम भी आखिर रुक जाती है।


ये लम्बा जो इंतज़ार है
मैं नहीं सह पाती इसको,
कहाँ रोऊँ, और क्या करूँ मैं,
जाकर दर्द सुनाऊँ किसको?