Sunday, October 08, 2006

लम्बा इंतज़ार


इंतज़ार हो ऐसा दिन तो
कम-से-कम मैं गिनने पाऊँ
ऐसा हो आओ ना जबतक
तब तक मैं बस रोती जाऊँ।


दिन हों उसमें बस इतने कि
जग भी मुझको छोड़ अकेला
बढ़ जाए वो क़दम-दो-क़दम
जाए ना पर मुझे ढकेला।


इंतज़ार जो होता कुछ दिन
उसको मैं भी गले लगाती
उसे प्यार का भाग बताकर
मीठे दर्द के साथ बिठाती।


सपने बुनती मिलन के दिन के
घर को अपने खूब सजाती,
ज्यों-ज्यों दिन आते जाते मैं
भीतर-बाहर दौड़ लगाती।


क्या करूँ उस इंतज़ार का
गिनती जिसमें छूट है जाती,
सूख जाते आँसू जिसमें
दुनिया मुझको छोड़ न पाती।


नहीं दर्द रहता है मीठा,
नहीं तड़प हलकी रहती है,
पागलपन चढ़ता जाता है,
बेचैनी बढ़ती रहती है।


सपने देख-देख कर मन भी
और नहीं फिर बुन पाता है,
कड़वाहट-सी भर जाती है
जग नहीं बिलकुल भाता है।


और शब्द भी थक जाते हैं,
कविताएँ हो चुप जाती हैं,
बार-बार बस वही बोलकर
कलम भी आखिर रुक जाती है।


ये लम्बा जो इंतज़ार है
मैं नहीं सह पाती इसको,
कहाँ रोऊँ, और क्या करूँ मैं,
जाकर दर्द सुनाऊँ किसको?

5 comments:

Manish Kumar said...

सपने देख-देख कर मन भी
और नहीं फिर बुन पाता है,
कड़वाहट-सी भर जाती है
जग नहीं बिलकुल भाता है।

वाह ! सुंदर पंक्तियाँ लगीं ये !

Anonymous said...

hi ...

well expressed.

regards
Ripudaman pachauri

Anil Sinha said...

मन को छू लेने वाली सहज सी कविता। आपकी और कविताओं का इंतजार रहेगा।

Anonymous said...

I read many poems of yours.I liked them very much.Can I talk to you ? My e-mail ID is vinodiitg@gmail.com Please mail me.

Vinod.

Mohinder56 said...

इन्तजार, सपने टूटने की तडफ और बैचेनी का सुन्दर चित्रण किया है आप ने..
आप की प्रोफाइल में आपके बारे में कुछ नही लिखा ऐसा क्यों है...खुद के बारे
में बताइये और दूसरों के बारे में जानिये...मेरे बारे में जानने के लिये मेरे ब्लोग
पर आइये .