Sunday, April 29, 2007

डर


डर इसका नहीं है कि मुझे भूल जाओगे
डरती हूँ न जाओ इन वादियों को भूल
रखी हैं जिन्होंने सहेज कर यादें हमारी
और न पड़ने देंगी समय की उन पर धूल।


कहीं वो गीली रेत अजनबी न लगने लगे
हमारे पैरों के निशान हैं जिनपर पास-पास
कहीं वो कंकड़ पैरों में न चुभने लगें
फेंके थे पानी में जो हमने साथ-साथ

वो अक्षर न भूल जाएँ तुम्हें
जिनसे हमने नाम लिखे थे
तूफ़ान न हो जाएँ बेगाने
जो हमने मिल थाम रखे थे।


इन सबके ही बीच में मैंने
कभी तो तुमके पाया था
और यहीं थे सब के सब
जब नींद और चैन गँवाया था।


थोड़े-थोड़े बाँट रखे हैं
इन्होने सब अनुभव अपने
ये साक्षी उनके, देखे हैं
जो हमने मिलकर के सपने।


हाँ, ये हो सकता नहीं
कि कभी कोई कुछ ना भूले,
बस इतनी सी चाहत है
जब भूलें मिलकर ही भूलें।


याद जगे मेरी इन सब से
और तुम्हें ना याद आए
जब हम फिर हों साथ यहाँ
यही है मुझको डर खाए।