Monday, August 01, 2005

कौन सा है आसमान जिसमें उड़ रही हूँ मैं

कौन सा है आसमान जिसमें उड़ रही हूँ मैं
कौन डगर जिससे कि पीछे ना मुड़ रही हूँ मैं।

गीत बन के बिखरे जो शब्द हैं हवाओं में
लाया मेरे पास कौन कि बन सुर रही हूँ मैं।

प्रिय की बाँहों में कहीं वसंत-सा कुछ है सही
ग्रीष्म की तपिश में बन फूल झड़ रही हूँ में।

सावन ने उनकी आँखों में घर शायद कर लिया
तभी तो यों घनघोर घटाओं-सी उमड़ रही हूँ मैं।

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